अध्याय6 श्लोक33,34 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 33-34

अर्जुन उवाच
योऽयं योगस्त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्याहं न पश्यामि चञ्चलत्वात्स्थितिं स्थिराम्‌ ॥
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम्‌ ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम्‌ ॥

संधि विच्छेद

अर्जुन उवाच
यः अयं योगः त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन ।
एतस्य अहं न पश्यामि चञ्चलत्वत् स्थितिं स्थिराम्‌ ॥
चञ्चलं हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवत् दृढम्‌ ।
तस्य अहं निग्रहं मन्ये वायोः इव सुदुष्करम्‌ ॥

अनुवाद

अर्जुन ने कहा हे मधुसूदन! जिस समन्वित योग का आपने वर्णन किया, चंचल मन में उसको स्थिर कर पाना मुझे संभव नहीं लगता | क्योंकि हे कृष्ण! मन बड़ा चंचल, उन्मादी, बलवान और हठी है| इसे वश में करना उतना ही दुष्कर है जितना वायु को वश में करना|

व्याख्या

इसके पहले के कई श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने योग की परम अवस्था उसको प्राप्त करने की विधि का वर्णन किया | उन विधियों में मन के ऊपर नियंत्रण को सबसे महत्वपूर्ण बताया गया है, और उसे सबसे कमजोर कड़ी भी बताया | मन के बारे बताते हुए भगवान ने तों इतना तक कहा कि मन ही सबसे बड़ा मित्र है और मन ही सबसे बड़ा शत्रु(श्लोक#५,६) | जिसने मन को जीत लिए उसके लिए योग की सिद्धि प्राप्त करना आसान हो जाता है(श्लोक#७) |इसके अलावा आत्म संयम, इन्द्रियों का निग्रह और उचित ज्ञान को भी आवश्यक बताया गया|
पूरा वर्णन सुनने के बाद यह स्पस्ट है कि योग में सिद्धि प्राप्त करना कोई आसन कार्य नहीं बल्कि कठिन है| अर्जुन के मन में भी यही प्रश्न उठा और उन्होंने भगवान श्री कृष्ण से अपने मन की बात कही, और बताया कि हे कृष्ण मन तों अत्यंत चंचल, उन्मादी और हठी होता है| इसको जितना तों प्रचंड वायु पर विजय प्राप्त के समान है फिर एक साधारण मनुष्य के लिए योग में सिद्धि प्राप्त करना कैसे संभव होगा?