अध्याय6 श्लोक37 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 37

अर्जुन उवाच
अयतिः श्रद्धयोपेतो योगाच्चलितमानसः ।
अप्राप्य योगसंसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥

संधि विच्छेद

अयतिः श्रद्धयः उपेतः योगात् चलित मानसः ।
अप्राप्य योग संसिद्धिं कां गतिं कृष्ण गच्छति ॥

अनुवाद

अर्जुन ने पूछा हे कृष्ण! [कोई ऐसा मनुष्य] जो योग में श्रधा तों रखता है, परन्तु [किसी कारणवश] मन पर संयम नहीं होने से योग में सफल नहीं हो पाता| ऐसे असफल साधक की क्या गति होती है?

व्याख्या

इस पुरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने अष्टांग योग की महिमा और उसके प्राप्त करने के उपायों का वर्णन किया |लेकिन पुरे वर्णन से यह स्पस्ट है कि योग में सिद्धि प्राप्त करना आसान नहीं है| योग में सिद्धि के लिए लगातार अभ्यास, ईश्वर में अटूट भक्ति, दृढ निश्चय और आत्म संयम की आवश्यकता है| यह सारे गुण को तपस्वियों में भी दुर्लभ हैं फिर एक साधारण मनुष्य का जो दिन रात अपने जीवन यापन के लिए भिन्न भिन्न प्रकार से संघर्ष करता है में इन सभी गुणों का होना तों और भी कठिन है| ऐसे बहुत लोग हैं जिनकी ईश्वर में श्रधा है और जो आत्म ज्ञान प्राप्त करने, योग में सिद्धि प्राप्त करने के इक्षुक हैं| लेकिन सामाजिक कारणों, शरीर की स्थिति और जीवन यापन के लिए संघर्ष करते रहने के कारण योग का अभ्यास नहीं कर पाते और आत्म ज्ञान की अवस्था को प्राप्त करने से वंचित रह जाते हैं|

यहाँ यह प्रश्न उठता है कि ऐसे सच्चे परन्तु असफल साधकों की इस जीवन और इस जीवन के बाद क्या गति होती है? यह प्रश्न बहुत स्वाभाविक है और बहुत महत्वपूर्ण भी| कोई संदेह नहीं कि अर्जुन ने भी यह प्रश्न श्री कृष्ण से पूछा| इस श्लोक में वही प्रश्न है|

शब्दार्थ
अयतिः = असफल
उपेतः = संलग्न होना, भाव होना, सहमति होना
चलित मानसः = चंचल मन
अप्राप्य = प्राप्त नहीं होने वाला, प्राप्त नहीं होना
कां = क्या
संसिद्धिं = सिद्धि, सफलता