कच्चिन्नोभयविभ्रष्टश्छिन्नाभ्रमिव नश्यति ।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मणः पथि ॥
एतन्मे संशयं कृष्ण छेत्तुमर्हस्यशेषतः ।
त्वदन्यः संशयस्यास्य छेत्ता न ह्युपपद्यते ॥
संधि विच्छेद
कच्चित् न उभय विभ्रष्टः छिन्न अभ्रम इव नश्यति ।
अप्रतिष्ठः महाबाहो विमूढः ब्रह्मणः पथि ॥
एतत में संशयं कृष्ण छेत्तुम् अर्हसि अशेषतः ।
त्वत अन्यः संशयस्य अस्य छेत्ता न हि उपपद्यते ॥
अनुवाद
हे महाबाहो(कृष्ण)! क्या ईश्वर(ब्रम्ह) के मार्ग से भटका और ईश्वर के आश्रय से विमुख हुआ [वैसा] योगी छिन्न-भिन्न बादल के समान नष्ट नहीं हो जाता? हे कृष्ण ! मेरे इस भ्रम को पूर्ण रूप से दूर करने में आप ही सक्षम है क्योंकि आपसे उत्तम इस भ्रम का निवारण करने वाला कोई अन्य नहीं है|
व्याख्या
ये दोनों श्लोक पिछले श्लोक से शुरू हुए प्रश्न का ही भाग हैं| भगवान श्री कृष्ण से योग का वर्णन सुनने के बाद अर्जुन को यह आभास हुआ कि योग में सिद्धि आसन नहीं बल्कि बहुत कठिन है जो साधारण मनुष्यों के लिए दुर्लभ है| संसार में ऐसे कई मनुष्य हैं जो ईश्वर में श्रधा तों रखते है परन्तु किसी कारणवश वह ईश्वर प्राप्ति या योग सिद्धि के लिए प्रयास नहीं कर पाते और असफल हो जाते हैं|
अर्जुन ने प्रश्न किया कि वैसे साधकों की क्या गति होती है|क्या वैसे साधक ईश्वर की कृपा से दूर होकर बिखरे हुए बादलों के समान नष्ट हो जाते हैं या उनके उद्धार का कोई मार्ग शेष रहता है| इस भ्रम को दूर करने के लिए अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से प्रार्थना की|
इन दोनों श्लोकों में अर्जुन के वही प्रश्न हैं
शब्दार्थ
छेत्तुम् = छेदना, खत्म करना, भ्रम या समस्या का निवारण करना
विभ्रष्टः = भ्रष्ट हो जाना, भटक जाना, दूर हो जाना
छिन्न = बिखरना, छिन्न-भिन्न होना
अभ्रम = बादल
अप्रतिष्ठः = बिना आधार के होना, आश्रय रहित होना
विमूढः = भ्रमित, शंसय में होना
पथि = मार्ग, रास्ता
अशेषतः = बिना शेष रहे, सम्पूर्ण
छेत्ता = छेदने वाला, भ्रम दूर करने वाला, निवारण करने वाला
उपपद्यत = खोजना, मिलाना, पाना