अध्याय6 श्लोक40 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 40

श्रीभगवानुवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥

संधि विच्छेद

श्रीभगवानुवाच
पार्थ न एव इह न अमुत्र विनाशः तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत् कश्चित् दुर्गतिं तात गच्छति ॥

अनुवाद

श्री भगवान बोले हे पार्थ! [ईश्वर के मार्ग में आये हुए] वैसे मनुष्य का न तों इस जन्म में और न ही अगले जन्मो में कभी पतन होता है क्योंकि हे पुत्र(तात) [भगवद भक्ति रूपी] कल्याण का कार्य करने वाला मनुष्य कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं हो सकता|

व्याख्या

योग की कठिनता के प्रति अर्जुन के सहज और मासूम प्रश्न को सुनकर भगवान श्री कृष्ण करुणा और दया से भर जाते हैं जैसे एक पिता अपने पुत्र के मासूम प्रश्नों से पुलकित होता है| अर्जुन को पुत्र(तात्) कहकर संबोधित करते हुए भगवान ने स्पस्ट शब्दों में आश्वाशन दिया और कहा कि कोई भी मनुष्य जो सच्चे हृदय से ईश्वर प्राप्ति के मार्ग पर आ जाता है वह फिर कभी पतन को प्राप्त नहीं होता|

इस श्लोक से आगे सात श्लोकों में उन रहस्यों का वर्णन है कि भले ही शारीरिक, सामाजिक या मानसिक कमजोरियों के कारण कोई मनुष्य इस जन्म में आत्म ज्ञान, योग में सिद्धि आदि प्राप्त करने में असफल रह जाए, लेकिन ईश्वर में सच्ची श्रधा के कारण अगले जन्म में उसकी सभी शारीरिक, सामाजिक और मानसिक कमियां पूरी हो जाती है और उसे वह सबकुछ प्राप्त होता है जिससे वह इस जीवन में वंचित रह गया था| और इस प्रकार वह पूर्ण उत्थान को प्राप्त होता है|

शब्दार्थ
अमुत्र = अगले जन्म, अगले लोक
विद्यते = होना,
तात = पुत्र, प्रिय