अध्याय6 श्लोक43 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 43

तत्र तं बुद्धिसंयोगं लभते पौर्वदेहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥

संधि विच्छेद

तत्र तं बुद्धि संयोगं लभते पौर्व देहिकम्‌ ।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनन्दन ॥

अनुवाद

हे कुरु नंंदन! वहाँ(अगले जन्म में) वह पूर्णजन्म के संस्कारों को पुनः प्राप्त करता है और उन (पूर्व जन्म के) संस्कारों से युक्त वह (परमात्मा की प्राप्ति) में पूर्ण सफलता के लिए [पहले से बढ़कर] प्रयत्न करता है|

व्याख्या

पिछले श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि एक सच्चा भक्त अगर ईश्वर में सच्ची श्रधा रखकर थोडा भी प्रयास करता है तों वह फिर वह पतन के मार्ग में जाने से बच जाता है| अगर वह इस जन्म में आत्म ज्ञान या मोक्ष प्राप्त करने ने असफल रहता है तों अगल जन्म में पुनः अवसर मिलता है| श्री कृष्ण ने दो स्थितियों का वर्णन किया| जो मनुष्य बहुत जल्दी असफल होते हैं वह अगले जन्म में एक पवित्र और संपन्न परिवार ने जन्मे लेते हैं| दूसरे जो अध्यात्म या योग में एक स्तर तक जाकर असफल होते हैं वह अगले जन्म में महान सन्यासी या सिद्ध योगी के घर जन्म लेते हैं|

अगल जन्म में उनकी सभी कमियां पूरी हो जाती है| उनके पूर्ण जन्म के संस्कार उन्हें पुनः प्राप्त होते हैं| इस प्रकार वह ईश्वर भक्ति और अध्यात्म का आधार जन्म से ही प्राप्त करता है| आगे के लिए उसकी साधना के मार्ग आसान हो जाते हैं| जिस स्थान से वह पूर्व जन्म में असफल हुआ था अब उसके आगे के मार्ग पर कही बेहतर ढंग से प्रयास करता है|

इस प्रकार भगवान ने यह सिद्ध किया कि एक सच्चा भक्त देर सवेर मुक्त हो ही जाता है| जिसने ईश्वर के प्रति सच्ची भक्ति की, और ईश्वर प्राप्ति का थोडा भी प्रयास किया वह शनैः शनैः मुक्ति के मार्ग तक पहुँच ही जाता है| जिसका प्रयास अच्छा हो, वह जल्दी मुक्त होता है| जिसका प्रयास कम है वह देर से| लेकिन ईश्वर भक्त का मुक्त होना निश्चित है,| एक बार ईश्वर की शरण में आने के बाद फिर जीव का पतन नहीं होता|

शब्दार्थ
पौर्व = पूर्व, पहले का
देहिकम्‌ = शरीर, जन्म, देह
भूयः = पुनः, फिर से
संयोगं = जुडना, प्राप्त होना, मिलना
संसिद्ध = पूर्ण सफलता, सिद्धि
कुरुनन्दन = कुरु के वंशज