अध्याय6 श्लोक44,45 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 44-45

पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥
प्रयत्नाद्यतमानस्तु योगी संशुद्धकिल्बिषः ।
अनेकजन्मसंसिद्धस्ततो यात परां गतिम्‌ ॥

संधि विच्छेद

पूर्व अभ्यासेन तेन एव ह्रियते हि अवशः अपि सः ।
जिज्ञासुः अपि योगस्य शब्द ब्रम्ह अतितिवर्तते ॥
प्रयत्नत् यत् मनः तु योगी संशुद्ध किल्बिषः ।
अनेक जन्म संसिद्ध ततः यति यात परां गतिम्‌ ॥

अनुवाद

अपने पूर्व जन्म के प्रताप से वह [पूर्व जन्म में असफल योगी] [अगले जन्म में] बिना प्रयास ही(स्वतः ही) अध्यात्म की ओर अग्रसर होता है| ईश्वर प्राप्ति(योग) के लिए प्रेरित वह जिज्ञासु [जन्म से ही] भौतिक अनुष्ठानो से उच्चतर [अध्यात्मिक स्तर पर] स्थित होता है | इस प्रकार [ईश्वर प्राप्ति के लिए] यत्न पूर्वक अभ्यासरह [सच्चा] योगी, अपने सभी कर्मो को शुद्ध करता हुआ कई जन्मो के पश्चात योग में सिद्ध होकर परम गति (अर्थात मोक्ष) को प्राप्त होता है|

व्याख्या

पिछले श्लोक से आगे बताते हुए भगवान श्र कृष्ण ने इन दो श्लोको में इस रहस्य को वर्णित किया कि कैसे एक सच्चा परन्तु असफल योगी के जन्म सुरक्षित हो जाते हैं?
भगवान ने यह स्पस्ट किया कि ईश्वर के प्रति सच्ची श्रधा और स्वक्ष चेष्ठा के कारण मनुष्य अगले जन्म में मनुष्य की सभी अध्यात्मिक कमियां पूरी हो जाती है| वह बचपन से ही अध्यात्मिक होता है और ज्ञान की गुढ़ बातों को समझने की क्षमता होती है| इस कारण उसके लिए आगे योग का अभ्यास और ईश्वर की प्राप्ति का कार्य आसान हो जाता है| धीरे धीरे ईश्वर के मार्ग पर अग्रसर होते हुए वह अपने पूर्व जन्म के सभी कर्मो को शुद्ध कर लेता है| कुछ जन्मो के बाद वह पूर्ण रूप से जन्मो के बंधन से मुक्त होकर भगवान के परम धाम को प्राप्त होता है|

इस प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने यह पूर्ण स्पस्ट रूप से इस रहस्य का उद्घाटन किया कि ईश्वर के सच्चे भक्त का भविष्य सुरक्षित रहता है|