अध्याय6 श्लोक46 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 46

तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिकः ।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जुन ॥

संधि विच्छेद

तपस्विभ्यः अधिकः योगी ज्ञानिभ्यः अपि मतः अधिकः।
कर्मिभ्यः च अधिकः योगी तस्मात् योगी भव अर्जुन ॥

अनुवाद

योगी तपस्वी से उत्तम होता है, ज्ञानी से उत्तम होता है और कर्मकांडी से भी उत्तम होता है| इसलिए हे अर्जुन [तुम] ज्ञानी बनो |

व्याख्या

जैसा हम सभी जानते हैं कि मोक्ष की प्राप्ति के कई मार्ग हैं और लोग अपने अपने स्वभाव के अनुसार उचित मार्ग का चयन करते हैं| कोई ज्ञान के मार्ग का चयन करता है, कोई तपस्या या सन्यास का मार्ग चुनता है और कोई कर्म का मार्ग चुनता है| लेकिन कोई यह प्रश्न पूछ सकता है इनमे सबसे उत्तम मार्ग कौन सा है| ऊपर के श्लोक में इसी पश्न का स्पस्ट उत्तर है| भगवान श्री कृष्ण ने स्पस्ट शब्दों में यह वर्णित किया कि योगी, तपस्वी, ज्ञानी और कर्मकांडी में योगी सबसे उत्तम है|

इन सबमे अंतर समझने के लिए इनका संक्षिप्त विवरण इस प्रकार है:
1. तपस्वी:
वह साधक जो कई सामाजिक कर्मो का त्याग करके सन्यास या तपस्या कर मार्ग अपनाता है तपस्वी कहलाता है| वैसे तों यह मार्ग मोक्ष प्राप्ति का उत्तम मार्ग है परन्तु यह मार्ग बहुत कठिन है| तपस्या करने के लिए मनुष्य को कठिन आत्म और हठयोग के लगातार अभ्यास की आवश्यकता पड़ती है जो सभी मनुष्यों के वश का नहीं|

२. ज्ञानी
यह ज्ञान का मार्ग है| जो इस मार्ग का अनुसरण करते हैं वह शास्त्रों के अध्ययन, ज्ञानियों की संगति, वैज्ञानिक परीक्षण आदि से सत्य को जानने पर प्रयास करते हैं | वैसे ज्ञान का मार्ग बहुत उत्तम माना गया है, क्योंकि भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद भगवद गीता में ही यह स्पस्ट किया कि ज्ञान से अधिक मनुष्य को पवित्र करने वाला और कुछ नहीं| लेकिन इसमे कठिनाई यह है कि ज्ञान की प्राप्ति एक बहुत कठिन कार्य है, कभी कभी तों पूरा जीवन भी ज्ञान की प्राप्ति के लिए कम है| दूसरा अगर ज्ञान प्राप्त हो भी जाए तों उसका सदुपयोग कोई मोक्ष प्राप्ति के लिए करेगा या नहीं करेगा वह उसके ईश्वर के प्रति श्रधा पर निर्भर करता है|

३ कर्मकांडी
यह धार्मिक अनुष्ठानो द्वारा ईश्वर की साधना का मार्ग | समाज के अधिकतर लोग इसी श्रेणी में आते हैं| एक भक्त प्रार्थना, पूजा-पाठ, हवन, यज्ञ आदि के द्वारा देवताओं या ईश्वर को प्रसन्न करने का प्रयास करता है| वैसे तों यह मार्ग बहुत सरल और सबके द्वारा प्रयोग करने योग्य है लेकिन कई मानवीय कमियों के कारण इस मार्ग में सफलता के अवसर कम हो जाते हैं| इस प्रकार की साधना की पूर्ण सफलता के लिए मनुष्य में कम से कम न्यूनतम ज्ञान, कर्म के पवित्रता और ईश्वर में श्रधा की आवश्यकता पड़ती है, जिसकी कमी पायी जाती है| कोई आश्चर्य नहीं कि समाज में बहुत लोगों की यह शिकायत रहती है कि उनको प्रार्थना से कोई लाभ नहीं हुआ|
दूसर लोग वैसे हैं जो धार्मिक अनुष्ठानो को अपने व्यक्तिगत लाभ या इक्षा पूर्ति तक ही सीमित कर लेते है| इसलिए ऐसी साधना का पूर्ण लाभ उनको नहीं मिल पाता|

४. योगी
योग का अर्थ ही होता है, जोड़ना | आत्मा को परमात्मा से जोडने की विधि को योग कहा जाता है| जो मनुष्य अपने आप को ईश्वर के प्रति समर्पित कर देता है, अर्थात जो अपनी आत्मा को परमात्मा मो सौंप देता है वह योगी कहलाता है| एक योगी होने के लिए किसी विशेष चीज़ की आवश्यता नहीं बल्कि अटूट श्रधा और समर्पण की आवश्यकता पड़ती है| इसके पहले के कई श्लोकों में यह स्पस्ट किया गया है जिस समय ही एक मनुष्य अपने आप को ईश्वर के चरणों में समर्पित कर देता है उसी समय से उसका उद्धार शुरू हो जाता है| वह फिर कभी पतन को प्राप्त नहीं होता|
एक मनुष्य जब योगी हो जाता है तों उसकी आत्मा में परमात्मा के गुण उत्पन्न होते हैं और धीरे धीरे उसके सभी कर्म, सभी विचार और उसकी इक्षाएं पवित्र हो जाती है| वह प्रारंभ में ज्ञानी न भी हो तों धीरे धीरे ज्ञान को प्राप्त करने लगता है|

एक योगी सभी से उत्तम इसलिए होता है कि इसमे मनुष्य की सफलता निश्चित होती है, दूसरे मार्गों में मनुष्य असफल भी हो सकता है लेकिन एक योगी कभी असफल नहीं होता|