अध्याय6 श्लोक4 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 04

यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते ।
सर्वसङ्केल्पसन्न्यासी योगारूढ़स्तदोच्यते ॥

संधि विच्छेद

यदा हि न इन्द्रिय अर्थेषु न कर्मसि अनुषज्जते ।
सर्व सङ्कदल्प संन्यासी योग आरूढ़स् तद् उच्यते ॥

अनुवाद

जब कोई [मनुष्य] न इन्द्रिय सुखों और न ही सांसारिक कार्यों में सुसज्जित होता है (अर्थात आनंदित होता है) तब वह निश्चय ही पूर्ण सन्यासी और योगारूढ़(योग में सिद्ध) कहा जाता है|

व्याख्या

पिछले श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कर्म और सन्यास के क्रम का उल्लेख किया| साधना के मार्ग में प्रथम चरण में हमेशा कर्म योग का पालन करना उचित है| जब कर्म के द्वारा मनुष्य अपने आपको एक स्तर तक सिद्ध कर लेता है तब सन्यास के नियमों का पालन कर सकता है|
इस श्लोक में कर्म और सन्यास के क्रम के तत्व का वर्णन है| भगवान ने यह स्पस्ट किया कि अगर कोई मनुष्य उचित रूप से कर्म योग का पालन करता है तो एक समय के बाद उसे यह आत्मज्ञात हो जाता है कि इन्द्रिय सुख और सांसारिक कार्य दोनों ही क्षणभंगुर हैं और जीवन का लक्ष्य नहीं हैं | तब उसका इनसे मोह भंग होता है| संसार की क्षणभंगुरता से मोहभंग ही सन्यास की अवस्था है| संसार के मोह से युक्त होकर परमात्म तत्व में स्थित होना ही योग की सिद्धि है| इस प्रकार एक पूर्ण सन्यासी एक सिद्ध योगी ही होता है|
हमे ज्ञात हो कि आष्टांग योग में भी कर्म और सन्यास का यही क्रम लागु होता है| अष्टांग योग के पहले चार अंग यम,नियम,आसन और प्राणायाम लगातार अभ्यास और नियम पालन अर्थात कर्म निर्भर हैं| कई विद्वानों द्वारा अष्टांग योग के इस भाग को क्रिया योग कहा जाता है|
अष्टांग योग के अंतिम चार अंग धारणा, प्रत्याहार,ध्यान और समाधि कर्मो के निषेध पर निर्भर हैं| इन चारो प्रक्रियाओं में सभी कर्मो को रोककर साधक अपने अंतःकरण पर केंद्रित होता है| योग के इस भाग को कई विद्वान राजयोग कुछ ध्यान योग के नाम से जानते हैं| सैधांतिक रूप से यह सन्यास की अवस्था है| अतः ऊपर का श्लोक और इसके पहले का श्लोक परोक्ष रूप से अष्टांग योग की पूरी प्रक्रिया को भी इंगित करते हैं|