उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् ॥
संधि विच्छेद
उद्धरेत् आत्मना आत्मानं न आत्मानं अवसादयेत् ।
आत्मा एव हि आत्मनो बंधुः आत्मा एव रिपुः आत्मनः ॥
बंधुः आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जितः ।
अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रुवत् ॥
अनुवाद
[मनुष्य को] अपने मन को जीतकर अपना उद्धार करना चाहिए न कि इसके अधीन होकर पतन को प्राप्त होना चाहिए| मन मनुष्य का मित्र भी है और शत्रु भी | जिसने अपने मन को जीत लिया, मन उसका सबसे अच्छा मित्र है लेकिन जिसने अपने मन को नहीं जीता तो वही मन उसका सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है|
व्याख्या
ऊपर के दो श्लोक अध्यात्मिक और सांसारिक दोनो ही रूप से अति महत्वपूर्ण श्लोक हैं| इन दो श्लोकों में मन (मस्तिस्क) की व्याख्या की गई है| मन मनुष्य के शरीर का सबसे शक्तिशाली अंग है| लेकिन शक्तिशाली होने के साथ मन बहुत चंचल भी होता है| अगर मन के ऊपर नियंत्रण कर लिया जाये और इसकी शक्ति का उचित उपयोग किया जाये तो मनुष्य महान बन सकता है| लेकिन अगर मनुष्य असावधान हो जाये और मन को स्वछंद छोड देता है तो यह मन मनुष्य के लिए घातक हो सकता है| नियंत्रित मन मनुष्य का सबासे बड़ा मित्र है और अनियंत्रित मन मनुष्य का सबसे बड़ा दुश्मन|
इस तथ्य का उल्लेख भगवान ने ऊपर के श्लोको में किया है और मनुष्य को यह सलाह दी है कि मनुष्य को अपने मन पर नियंत्रण स्थापित करना चाहिए| मन पर नियंत्रण करने से मनुष्य का सांसारिक जीवन तो सुखी होता ही है अध्यात्मिक उत्थान भी होता है|