अध्याय6 श्लोक8 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 08

ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचनः ॥

संधि विच्छेद

ज्ञान-विज्ञान तृप्तात्मा कूटस्थो विजित इन्द्रियः ।
युक्त इति उच्यते योगी सम लोष्ट अश्म कांचनः ॥

अनुवाद

जो ज्ञान (अध्यात्मिक सत्य) और विज्ञान (वैज्ञानिक तथ्य) में सिद्ध (तृप्त) है, जिसकी इन्द्रियां उसके वश में हैं और जो [ईश्वर अटूट विश्वास रखते हुए] अपने अंतःकरण में स्थित है, वह योगी ब्रम्हलीन(भगवत्प्राप्त) है| उसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना सब एक समान हैं|

व्याख्या

इस श्लोक में कई बातें पहले भी कही गई जैसे इन्द्रियों पर वश, ज्ञान और ईश्वर में अटूट विश्वास. लेकिन उनके साथ विज्ञान की उपयोगिता भी जोड़ी गई| भगवान ने यह स्पस्ट किया कि अध्यात्मिक ज्ञान तो आवश्यक है ही लेकिन प्राकृतिक सत्य जो हम अपने भौतिक जीवन में अपनी चारों ओर देखते हैं उसका ज्ञान भी आवश्यक है| प्राकृतिक सत्य को जानने और मापने की विधि ही दूसरे शब्दों में विज्ञान कहा जाता है| विज्ञान का यथार्थ ज्ञान हमे भौतिक क्रियाओं और उनके बदलावों को समझने में सहायता करता है और हमे भ्रम से दूर रखता है| विज्ञान हमें हमारे जीवन को बेहतर करने में भी सहायता करता है| इस प्रकार एक सच्चा योगी विज्ञान को भी उतना ही महत्व देता है, जितना अध्यात्मिक ज्ञान को|

यह श्लोक इस तथ्य को स्थापित करता है कि हमारे शास्त्रों में विज्ञान को अध्यात्म के समतुल्य और महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि विज्ञान उस सनातन सत्य का ही प्रतिपादन करते हैं| अतः हमें किसी भी हाल में विज्ञान की अवहेलना नहीं करनी चाहिए|

शब्दार्थ
कूटस्थ: अध्यात्मिक अवस्था में स्थित होना
लोष्ट: मिट्टी
अश्म: पत्थर
कांचन: सोना