अध्याय6 श्लोक9 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6 : राज या ध्यान योग

अ 06 : श 09

सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु ।
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते ॥

संधि विच्छेद

सुहृत मित्राय अरि उदासीन मध्यस्थत् द्वेष्य बन्धुषु ।
साधुष्व अपि च पापेषु समबुद्धिः विशिष्यते ॥

अनुवाद

जो सुहृद (हितैषी), मित्र, वैरी (शत्रु), उदासीन(पक्षपातरहित), मध्यस्थ, द्वेष करने वाला, सम्बन्धी (बंधु-बांधव) तथा साधु(महात्मा) और पापी के बीच भी समान भाव रखता है(अर्थात भेदभाव नहीं करता), वह [योगियों में भी] विशिष्ट है|

व्याख्या

पिछले अध्याय में ही(Ch5:Sh18) यह बताया गया था कि जो मनुष्य जानवरों और मनुष्यों में भी समान भाव रखता है वह एक श्रेष्ठ और ज्ञानी है| लेकिन वैसा समान भाव रखने वाला सभ्य भी शत्रु, मित्र, द्वेषी या हितैषी, महात्मा और पापी में भेद कर सकता है|
इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने उन श्रेष्ठ योगियों में भी श्रेष्ठ के गुणों का वर्णन किया है| जो मनुष्य इस मित्र और शत्रु, महात्मा और पापी को भी एक ही भाव प्रदान करे, तो वह निश्चय परम उपलब्धि है| शत्रु, पापी और द्वेषी को भी समान भाव देने के लिए अति उच्च अध्यात्मिक और मानसिक शक्ति तथा परम तेज की आवश्यकता पड़ती है जो योगियों में भी दुर्लभ है| वैसा मनुष्य योगियों में भी विशिष्ट है|

शब्दार्थ

सुहृत - अच्छे हृदय वाला, हितैषी
अरि - शत्रु, वैरी
समबुद्धि - समान व्यवहार करना, समान सोच रखना, भेदभाव नहीं करना