अध्याय7 श्लोक15 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 7 : अध्यात्म योग

अ 07 : श 15

न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः ॥

संधि विच्छेद

न मां दुष्कृतिनः मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः ।
मायया अपहृत ज्ञाना आसुरं भावम् आश्रिताः ॥

अनुवाद

माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है (अर्थात जो माया में भ्रमित हैं), ऐसे मुर्ख और नराधम [मनुष्य] मेरा प्रतिपादन(पालन) नहीं करते और आसुरी प्रवृति को प्राप्त होते हैं|

व्याख्या

पिछले कई श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने माया के प्रभाव का वर्णन किया, जिसमे भगवान ने यह स्पस्ट किया कि सभी जीवित प्राणी भौतिक इकाई होने के कारण प्राकृतिक गुणों के प्रभाव में रहते हैं और प्राकृतिक प्रभाव का ही अनुभव कर पाते हैं| इस पुरे प्राकृतिक रचना और गुणों को सम्मिल्लित रूप से माया कहा जाता है| माया के प्रभाव में रहने के कारण मनुष्य ईश्वर का न तों दर्शन कर पाते हैं और न ही ईश्वर की गुणों का अनुभव|

यह प्राकृतिक शरीर की वास्तविक सीमा है जो सभी जीवों और मनुष्यों पर समान रूप से लागु होगा है| लेकिन इस तथ्य को लेकर विभिन्न श्रेणी के मनुष्यों में एक महत्वपूर्ण भेद है| एक ज्ञानी इस तथ्य को जानता है कि यह भौतिक शरीर अंतिम सत्य नहीं और और इसलिए वह इस माया के बंधन को तोडने का प्रयास करता है|
इस माया को तोडने का सबसे अच्छा उपाय है परमात्मा श्री कृष्ण की शरण में जाना | जो ज्ञानी मनुष्य इस जीवन के रहते इस परम सत्य को जानकर भगवान श्र कृष्ण की शरण में आ जाता है वह देर सबेर इस माया के बंधन से मुक्त हो जाता है|

लेकिन मनुष्यों की एक दूसरी श्रेणी भी है| कुछ मनुष्य इस भौतिक शरीर और इस प्राकृतिक जगत को अंतिम सत्य मानकर इसमे लिप्त होते हैं| वह न तों भगवान श्री कृष्ण की सत्ता और अध्यात्मिक सत्य को अस्वीकार करते हैं|

माया का प्रभाव ऐसा है कि ऐसे मनुष्य अपने अंगों के अनुभव के आगे कुछ स्वीकार नहीं करते और तर्क देते हैं ईश्वर दिख नहीं रहा तों सत्य नहीं हो सकता| लेकिन अवतार के समय जब यही ईश्वर मनुष्य रूप में अवतरित होकर सबके सामने आते हैं हैं तों फिर ऐसे मनुष्य यह कह कर ईश्वर को अस्वीकार कर देते हैं कि यह तों मनुष्य हैं

इस तथ्य का वर्णन ९:११ के श्लोक में किया गया है
"मुझ परमेश्वर के पूर्ण रहस्य कों न जानने वाले मूढ़ लोग (मुर्ख लोग) मनुष्य रूप में मुझे देखकर मेरा तिरस्कार करते है ॥ "

अध्यात्म और भक्ति के विपरीत आसुरी प्रवृति की सत्ता होती है और जो लोग ईश्वर, अध्यात्म और दैवीय गुणों से दूर जाते हैं वह आसुरी प्रवृति के नजदीक होते जाते हैं| उनका इस जीवन और आगे के जीवन में पतित होते हैं|