अध्याय7 श्लोक17,18 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 7 : अध्यात्म योग

अ 07 : श 17-18

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते ।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ॥
उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्‌ ।
आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्‌ ॥

संधि विच्छेद

तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एक भक्तिः विशिष्यते ।
प्रियः हि ज्ञानिनः अत्यर्थम् अहं सः च मम प्रियः ॥
उदाराः सर्व एव एते ज्ञानी तु आत्मा एव मे मतम्‌ ।
आस्थितः स हि युक्तआत्मा माम् एव अनुत्तमां गतिम्‌ ॥

अनुवाद

उनमे[चार प्रकार के भक्तो में] से ज्ञानी सर्वथा मुझमे समर्पित होता है [और इसलिए] विशिष्ठ है| [निःसंदेह] मैं उसका अति प्रिय हूँ और वह मेरा अत्यंत प्रिय है| यह सभी(चार प्रकार के) [भक्त] श्रेष्ठ हैं(उदार हैं)| लेकिन ज्ञानी[भक्त] तो मेरा ही आत्मरूप है, क्योंकि वह मुझमे आत्मसात होकर उच्च [अध्यात्मिक] अवस्था में स्थित होता है|

व्याख्या


इसके पहले के श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने चार प्रकार के भक्तो का वर्णन किया | उन भक्तों के बारे में आगे बताते हुए श्री कृष्ण ने कहा कि कोई भी मनुष्य चाहे किसी भी कारण ईश्वर की साधना करता है, वह श्रेष्ठ है और आदरणीय है| लेकिन उनमे एक प्रकार का भक्त भगवान के लिए विशेष है| वह भक्त जो भगवान श्री कृष्ण के एकमुश्त साधना करता है और उनको अपने जीवन का लक्ष्य बनाता है वह फिर भगवान का अपना हो जाता है| श्री कृष्ण ने तों यहाँ तक कहा कि वैसा भक्त श्री कृष्ण का आत्मरूप हो जाता है अर्थात ईश्वर के ह्रदय में स्थान पाता है|