अध्याय7 श्लोक25 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 7 : अध्यात्म योग

अ 07 : श 25

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमायासमावृतः ।
मूढोऽयं नाभिजानाति लोको मामजमव्ययम्‌ ॥

संधि विच्छेद

नाहं प्रकाशः सर्वस्य योगमाया समावृतः ।
मूढोऽयं न अभिजानाति लोको माम् अजम् अव्ययम्‌ ॥

अनुवाद

अपनी योगमाया से घिरा हुआ मै सबके सामने प्रत्यक्ष नहीं होता, इस कारण संसार में अज्ञानी लोग इस रहस्य को नहीं जानते कि मैं अजन्मा और अव्यय (अक्षय अर्थात परिवर्तित न होने वाला) हूँ |

व्याख्या

पिछले श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट रूप से उल्लेख किया कि वह निराकार नहीं हैं बल्कि एक अविनाशी और अक्षय रूप को धारण करते हैं| लोग अज्ञानता वश उन्हें निराकार मानते हैं|
भगवान श्री कृष्ण का रूप अति अलौकिक, अविनाशी और अनुपम है |


लेकिन फिर भी वह मनुष्यों को दृष्टिगत नहीं होते| क्यों? इस श्लोक में उसके कारण का वर्णन किया है|
जैसा हम जानते हैं मनुष्य और सभी लौकिक प्राणी एक सीमित शारीरिक और मानसिक क्षमता रखते हैं| हम पूरी प्राकृतिक शक्ति और क्रियाओं के एक बहुत छोटे रूप और अनुभव कर पाते हैं| जबकि भगवान इस पुरे ब्रम्हांड को धारण करते हैं| हमारे और ईश्वर के बीच में लाखो करोड़ों माया की परतों का फालसा है| और इसी कारण हम ईश्वर को देख नहीं पाते|

ईश्वर को देखने के सिर्फ दो ही मार्ग हैं
१. मनुष्य योग से इतनी शक्ति पैदा करे कि माया कीपरतों को भेद कर ईश्वर के साक्षात् दर्शन कर पाए
२. ईश्वर अपनी माया की शक्ति को संतुलित करके लौकिक प्राणी के रूप में मनुष्य के सामने आयें|


इसमे दूसरी प्रक्रिया को ही अवतार कहा जाता है| जो अवतार के समय मौजूद होते हैं वह ईश्वर के दर्शन करते हैं| नहीं तों फिर तपस्या और योग अभ्यास के द्वारा ऋषि मुनि ईश्वर के दर्शन करते हैं|
लेकिन इन दो साधनों के अलावा एक और भी मार्ग है सबसे सरल और सबसे उत्तम भी| वह मार्ग है भक्ति का|
भगवान श्री कृष्ण ने एक नहीं,बल्कि कई स्थानों पर यह स्पस्ट किया है कि वह अपने भक्तों से दूर नहीं होते(Ch6:Sh30) और उनका भक्त उनका सबसे प्रिय है(Ch7:Sh14). भक्त तों भगवान का इतना प्रिय है जैसे वह उनका अपना ही स्वरूप हो(Ch7:Sh17-18).


ईश्वर को न देख पाना ईश्वर के निराकार होने का तर्क नहीं| बल्कि यह मनुष्य की सीमित क्षमता का द्योतक है|