अनुवाद
हे अर्जुन ! हे परन्तप! इस प्रकृति में सभी जीव जन्म से ही(स्वाभाविक रूप से) राग द्वेष के द्वन्द में मोहित होकर सम्मोहन(delusion)(भ्रम) को प्राप्त होते हैं|
व्याख्या
इसके पहले के श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने यह वर्णित किया कि किस प्रकार माया की सीमा बंधा मनुष्य स्वयं ही सीमित हो जाता है| इस भौतिक सीमा के अधीन होने के कारण ही वह ईश्वर का साक्षात्कार करने से असमर्थ हो जाता है|
लेकिन यह तों स्वाभाविक बात है कि अधिकतर मनुष्य यह चाहते तों नहीं कि वह माया के बंधन में बंध जाएँ | बल्कि कई लोग तों इस माया के बंधन से मुक्त होने का भरसक प्रयास करते हैं|
सत्य यह है माया का यह सम्मोहन स्वाभाविक गुण है और हर समय प्रकृति के हर पदार्थ में विद्यमान रहता है| इस सम्मोहन के दो सिरे हैं ,१. पक्ष २. विपक्ष| इन दो सिरों के बीच स्थित कोई भी पदार्थ इनके द्वंद्व से प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकता|
मनुष्य भी चूँकि एक प्राकृतिक प्राणी है और इसलिए वह भी प्रकृति के इस द्वंद्व के समक्ष होने को बाध्य है| पक्ष और विपक्ष की इस द्वन्द से इक्षा और द्वेष , राग और विराग, प्रेम और घृणा जैसे गुणों का जन्म होता है| पूरी जिंदगी मनुष्य इन द्वन्द से जूझता रहता है इस बात से अनभिज्ञ की यह प्रक्रति जन्य द्वन्द का परिणाम है,अध्यात्मिक सत्य नहीं|
इसलिए मनुष्य को इनसे भ्रमित होने की बजाय इनके सत्य को जानवर सजग होना चाहिए| जिस समय ही मनुष्य इस गहन सत्य को जानने में समर्थ होता है उसी समय उसके लिए ज्ञान का मार्ग खुल जाता है|
शब्दार्थ
परन्तप = वह वीर जो शत्रुओं के हृदय में भय पैदा कर दे
सर्ग = प्रकृति, प्रकृति-जन्य
भूत = जीव
समुत्थेन = उत्पन्न होना,