अध्याय7 श्लोक28 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 7 : अध्यात्म योग

अ 07 : श 28

येषां त्वन्तगतं पापं जनानां पुण्यकर्मणाम्‌ ।
ते द्वन्द्वमोहनिर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥

संधि विच्छेद

येषां तु अन्तगतं पापं जनानां पुण्य कर्मणाम्‌ ।
ते द्वन्द्व मोह निर्मुक्ता भजन्ते मां दृढव्रताः ॥

अनुवाद

परन्तु वे मनुष्य जिनके पाप उनके पुण्य कर्मो से नष्ट हो चुके हैं, वह (राग-विराग जन्य) द्वंद्व से उत्पन्न मोह से मुक्त हो जाते हैं और मेरी दृढ भक्ति प्राप्त करते हैं|

व्याख्या

पिछले श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया था कि यह प्रकृति दो विपरीत क्रियाओं या संभावनाओं से युक्त है, जिसे श्लोक में राग-द्वेष कहा गया है| सभी जीव जन्म से ही इस द्वंद्व के प्रभाव में होते हैं और अगर वह सजग नही है तों इस संसार के मोह में में भ्रमित हो जाते हैं|

इस भ्रम से बचने के लिए मनुष्य को प्रयास करने की आवश्यकता होती है| इस मोह से बचने का सबसे उत्तम साधन है ईश्वर की भक्ति| जब मनुष्य ईश्वर शरण में आता है तों उसका मन पवित्र होने लगता है, मन के पवित्र होने से उसके कर्म पवित्र होते हैं| कर्म से पवित्र होने से उसकी ईश्वर में भक्ति और दृढ होती है|
इस प्रकार सतत प्रयास से एक दिन वह पूर्ण रूप से संसार के भ्रम से मुक्त हो जाता है और जिस दिन उसका भ्रम पूर्ण रूप से दूर हो जाता है वह ईश्वर की पूर्ण भक्ति प्राप्त करके ईश्वर को प्राप्त करता है|