अध्याय7 श्लोक29 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 7 : अध्यात्म योग

अ 07 : श 29

जरामरणमोक्षाय मामाश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तद्विदुः कृत्स्नमध्यात्मं कर्म चाखिलम्‌ ॥

संधि विच्छेद

जरा मरण मोक्षाय माम आश्रित्य यतन्ति ये ।
ते ब्रह्म तत् विदुः कृत्स्नम् अध्यात्मं कर्म च अखिलम् ॥

अनुवाद

जो [मनुष्य] मेरी शरण में आते हैं और [श्रद्धापूर्वक] वृधावस्था और मृत्यु की व्याधि से छूटने का प्रयास करते हैं, कालांतर में वे ब्रम्ह, आध्यात्म और कर्मो के सम्पूर्ण [गुढ़] सिद्धांत को जान लेते हैं|

व्याख्या

ऊपर का श्लोक एक अति महत्वपूर्ण श्लोक है और अध्यात्म में निपुणता प्राप्त करने का मार्ग प्रशस्त करता है| इस श्लोक में भगवान ने स्पस्ट सब्दों में भक्ति की प्रधानता का वर्णन किया है|
वैसे तों कोई भी मनुष्य स्वतन्त्र रूप से ज्ञान योग या कर्म योग की साधना कर सकता है| लेकिन कोई मनुष्य अगर ईश्वर की शरण में जाकर अपने निर्मल हृदय से संसार की माया से छूटने का प्रयास करते हैं वह निश्चय की ब्रम्ह को प्राप्त तों करते ही हैं लेकिन वे ज्ञान योग और कर्म योग को भी सिद्ध कर लेते हैं| अतः भक्ति का मार्ग सभी योगों को सिद्ध करने का मार्ग हैं| भक्ति से सभी दूसरे योगों को साधा जा सकता है

जब कोई व्यक्ति ईश्वर की सच्ची भक्ति करता है तों उसे ईश्वर की विशेष अनुकंपा प्राप्त होती है| भगवान श्री कृष्ण उसे योग की शक्ति प्रदान करते हैं जिसके द्वारा वह मनुष्य अपने इक्षित लक्ष्य को प्राप्त करता है
यह तथ्य दूसरे श्लोक में स्पस्ट रूप से वर्णित है

“उन सभी भक्तो कों जो मेरा ध्यान श्रधा पूर्वक(प्रीति पूर्वक) निरंतर करते हैं, मैं तत्त्वज्ञानरूप बुधि का योग देता हूँ, जिसके द्वारा वे मुझको प्राप्त करते हैं॥“(Ch10:Sh10)

शब्दार्थ
विदुः = जानने वाला
अखिल = समुपूर्ण, सभी
यतन्ति = प्रयत्न करते हैं
जरा = वृधावस्था
आश्रित्य = शरागत, शरण में आया हुआ
कृत्स्न = सबकुछ