अध्याय7 श्लोक11 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 7 : अध्यात्म योग

अ 07 : श 11

बलं बलवतां चाहं कामरागविवर्जितम्‌ ।
धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोऽस्मि भरतर्षभ ॥

संधि विच्छेद

बलं बलवतां च अहं काम राग विवर्जितम्‌ ।
धर्म अविरुद्धो भूतेषु कामो अस्मि भरतर्षभ ॥

अनुवाद

हे भरत श्रेष्ठ(अर्जुन)! मैं बलवानों में स्थित कामनारहित और मोहरहित बल हूँ| और सभी जीवों के मन में स्थित धर्मानुकूल कामना हूँ| या हे भरत श्रेष्ठ(अर्जुन)! मैं बलवानों में स्थित वह बल हूँ जो आसक्ति और कामनाओं से मुक्त है| और सभी जीवों के मन में स्थित वह वह कामना हूँ जो धर्म के अनुकूल है|

व्याख्या

इस श्लोक में भी भगवान पिछले श्लोक के आगे अपनी ईश्वरीय शक्ति के के विस्तार कर वर्णन कर रहे हैं| अगर शाब्दिक अर्थ लें तों उसके अनुसार जीवों के स्थित बल और इक्षाशक्ति भी ईश्वरीय गुणों का विस्तार हैं जो जीवन शक्ति के साथ जीवों में प्रकट होती है|

लेकिन ऊपर के श्लोक में शाब्दिक अर्थ से परे भी गुढ़ तत्वों का वर्णन है| इस श्लोक में भगवान ने यह स्पस्ट किया कि अगर मनुष्य धर्म के अनुकूल कामना करता है तों वह गलत नहीं बल्कि पवित्र है| इस प्रकार एक व्यक्ति जो
ईमानदारी से अपने नियत कर्तव्यों अक पालन करते हुए अपने जीवन में अपने और अपने परिवारजनो के लिए सुख सुविधाएं अर्जित करने का प्रयास करता है तों वह सही है| इसी प्रकार वैसा बल, शक्ति या सफलता जो अपने स्वार्थ के लिए नहीं हो बल्कि जिससे धर्म और समाज का कल्याण हो वह भी उचित है|

इस प्रकार ऊपर के श्लोक से यह सिद्ध होता है कि धर्म के अनुकूल की गई कामना और वैसा बल जो स्वार्थ सिद्धि के लिए नहीं हो वह उचित है|

शब्दार्थ
बलवतां = बलवान
विवर्जितम्‌ = से रहित, से मुक्त
अविरुद्ध = अनुकूल
( विरुध = प्रतिकूल, विरोधी |
अविरुद्ध = विरुध का विरुद्ध अर्थात अनुकूल)
नोट; ध्यान दे क्योकि कई लोग इस शब्द “धर्माविरुद्धो” का अर्थ लगाते हैं “धर्म विरुध” जो सरासर गलत है|
इसका सही अर्थ जानने के लिए इस शब्द का संधि विक्छेद आवश्यक है|
धर्माविरुद्धो= धर्म + अविरुद्ध = अर्थात धर्म के अनुकूल|