संधि विच्छेद
पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यः तु अनन्या ।
यस्य अन्तः स्थानि भूतानि येन सर्वम् इदं ततम् ॥
अनुवाद
हे पार्थ ! वह परम पुरुष (परमात्मा) जो सभी जीवों का अंतिम पड़ाव(स्थान) है और जिससे सम्पूर्ण जगत स्थित है, अनन्य भक्ति से ही प्राप्त होने योग्य है|
व्याख्या
इस श्लोक में एक बार फिर भगवान श्री कृष्ण की भक्ति की श्रेष्ठता का वर्णन किया| भगवान ने कहा कि परमात्मा जो सभी जीवो का अंतिम पड़ाव है, जो सम्पूर्ण जगत, दोनों प्रकार के ब्रम्हांड, लौकिक और अलौकिक का सृजनकर्ता है, वह सिर्फ अनन्य भक्ति से ही प्राप्त किया जा सकता है|
यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि भगवान श्री कृष्ण ने स्वयं को एक निरपेक्ष शब्द परम पुरुष से संबोधित किया है| परम पुरुष का शाब्दिक अर्थ होता है परमात्मा| वैसे "पुरुष" भगवान श्री विष्णु या भगवान कृष्ण का एक संबोधन है| इस शब्द "पुरुष" का प्रयोग ईश्वर के लिए सभी शास्त्रों में किया गया है| श्री ऋग वेद का एक पूरा सूक्त १०.९० को पुरुष सूक्त भी कहा जाता है| चूँकि भगवान श्री कृष्ण स्वयं ईश्वर हैं इसलिए वह स्वयं के लिए ईश्वर के लिए प्रयोग होने वाले सभी शब्दों का प्रयोग कर सकते हैं| जहाँ भी ईश्वर के सन्दर्भ में पुरुष शब्द का प्रयोग हो उसे भगवान विष्णु के लिए संबोधन मानना चाहिए|