अध्याय8 श्लोक24,25 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 8 : अक्षर ब्रम्ह योग

अ 08 : श 24-25

अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥

संधि विच्छेद

अग्निः ज्योतिः अहह शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्म-विदः जनाः ॥
धूम्रः रात्रिः तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम्‌ ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिः योगी प्राप्य निवर्तते ॥

अनुवाद

अग्नि,प्रकाश,दिवस(दिन), शुक्ल पक्ष तथा उत्तरायण [के इष्ट देवता] के मार्ग में जाने वाले ब्रम्ह्वेता [योगी] [शरीर त्यागने के बाद] परम ब्रम्ह को प्राप्त होते हैं| धूम्र(अंधकार),रात्रि,कृष्ण पक्ष तथा दक्षिणायन [के इष्ट देवता] के मार्ग में जाने वाले योगी चन्द्रमा की ज्योति को प्राप्त होकर पुनः [मृत्यु लोक में] वापस जन्म लेता है|

व्याख्या

ऊपर के दो श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने दो प्रकार के मार्गों का वर्णन किया है| हालाकि में श्लोक वर्णित शब्द जैसे, अग्नि, दिन, शुक्लपक्ष , उत्तरायण आदि दिन से लेकर वर्ष तक के समय के द्योतक हैं, लेकिन वास्तव में यह शब्दों उन समयों के इष्ट देवताओं को इंगित करते हैं| हिंदू धर्म के तीन मुख्य विद्वान इस मत से सहमत हैं| अतः इन शब्दों का अर्थ देवताओं के मार्ग का अनुसरण करने से लेना चाहिए|

इन दो श्लोकों में दो मार्गों का वर्णन है. पहला मार्ग जिसमे अग्नि, प्रकाश,दिवस, शुक्ल पक्ष और उत्तरायण के देवता इष्ट हैं उनका अनुसरण करने वाले मनुष्य शरीर त्यागने के बाद जन्म और मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर ब्रम्ह को प्राप्त करते हैं|

वहीँ वे मनुष्य जो अंधकार, रात्रि, कृष्ण पक्ष और दक्षिणायन के देवताओं का अनुसरण करते हैं वह इस लोक में पुनः जन्म लेते हैं| यहाँ यह विचार रखने की बात यह है कि यह दोनों श्लोक किसी अच्छे या गलत की परिभाषा तय नहीं कर रहे बल्कि दोनों मार्गों पर गमन का परिणाम वर्णित कर रहे हैं|

इन दो श्लोकों का वर्णन श्री माधवाचार्य ने निन्म रूप में किया है:

श्री कृष्ण यह वर्णित कर रहे हैं कि किन देवताओं का अनुसरण करने वाले मनुष्य जन्म मरण के बंधन से मुक्त होते हैं| यहाँ “यात्रा काले” मात्र एक विशेषणात्मक शब्द है, क्योंकि अग्नि या प्रकाश के मार्ग को इंगित कर रहे हैं|

शब्द ज्योति, “अर्चि” नामक देवता को प्रदर्शित करता है| ज्योति के मार्ग में जाने का पर्याय है कि वे देवता “अर्चि” को प्राप्त होते हैं| नारद पुराण में भी वर्णित है, अग्नि को प्राप्त करने के बाद, अर्चि और अर्चि के बाद “अह” इत्यादि| अग्नि आदि इष्ट देवता हैं अन्यथा शास्त्रों में यह वाक्य मिथ्या मानी जायेगी कि “दिन के समय वह मास के ज्योतिर्मय भाग को प्राप्त करता है”| क्योंकि वास्तव में सूर्य तों हमेशा होता है और दिन ही एकमात्र सत्य है,रात्रि नहीं| यह कोई बुद्धिमान यह कैसे मान सकता है कि शुक्ल पक्ष के दिन में मृत्यु को प्राप्त करने वाला मनुष्य ब्रम्ह को प्राप्त कर ले| (ब्रम्ह पुराण में वर्णित)

अतः शुक्ल पक्ष या कृष्ण पक्ष के इष्ट देवता श्लोक में वर्णित शब्दों के सही अर्थ हैं| जैसा गरुड़ पुराण में वर्णित है, “तत्व के जानने वाले मास और पक्ष(कृष्ण या शुक्ल पक्ष) के इष्ट देवता की साधना करें”| इसी प्रकार ब्रम्ह वैवर्त पुराण में वर्णित है कि, समय के इष्ट देवता के साथ मनुष्य “अह”, शुक्ल, अयन, और विपु आदि की भी साधना करे| दिवस के इष्ट देवता के साथ साथ रात्रि के इष्ट देवता, पूर्णिमा के इष्ट इष्ट देवता, अमावस के इष्ट देवता,उत्तरायण, दक्षिणायन के इष्ट देवताओं की साधना करते हुए जो ब्रम्हलीन होता है वह केशव को प्राप्त करता है|

उपर के श्लोकों में “काल” से तात्पर्य उन इष्ट देवताओं को लिया गया है जिसकी मदद से जीवन से प्रयाण करने के बाद समतुल्य गति प्राप्त होती है| जैसा सत्-तत्त्व(२४) में कहा गया है:
जैसे अग्नि और ज्योति द्वैत रूप से अग्नि का पुत्र स्थापित होता है| जो वह जो ब्रम्ह में युक्त है इन्हें प्राप्त करने के पश्चात अपने इष्ट देव को प्राप्त करता है|

यहाँ समय पर अग्नि, ज्योति, रात्रि आदि समय के इष्ट देवों के सूचक हैं| इस प्रकार दक्षिणायन, कृष्ण पक्ष में प्रयाण करने वाले अपने पितरों का आदर प्राप्त करते हैं और चंद देव के समतुल्य लोकों को प्राप्त करते हैं| लेकिन जो भी चाहे वह सूर्य के समतुल्य ज्योति या चंद्रमा के समतुल्य ज्योति से ज्ञान प्राप्त कर ब्रम्ह से युक्त होता है वह अंततः ब्रम्ह को प्राप्त करता है| अतः जो किसी भी मार्ग से ब्रम्ह में युक्त होता है वह जीवन और मृत्यु के चक्र से मुक्त होता है| इस प्रकार उत्तरायण या दक्षिणायन, सूर्य की ज्योति या चन्द्र की ज्योति किसी भी मार्ग से प्रयाण करने वाला मनुष्य अगर ब्रम्ह में स्थित होता है तों वह ब्रम्ह को प्राप्त करता है|

हालाकि आदि शंकराचार्य के मत श्री माधवाचार्य के मत थोडा सा भिन्न है| आदि शंकराचार्य ज्योति को ज्ञान और अंधकार को कर्मफल के मोह से जोडते हैं| इस प्रकार उनका मत है कि जो ज्ञान के मार्ग और उनसे सम्बंधित इष्टदेवताओं से युक्त होते हैं वे जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होते हैं| दूसरे वे जो चंद्र ज्योति के प्रतीक कर्म फल के मार्ग का चयन करते है और कर्म फल को पूरा करने वाले देवताओं से युक्त होते हैं वे उन देवताओं के लोक में जाते हैं और अपने कर्मो का फल भोगने की बाद मृत्यु लोक में वापस आते हैं|