अध्याय8 श्लोक27 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 8 : अक्षर ब्रम्ह योग

अ 08 : श 27

नैते सृती पार्थ जानन्योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात्सर्वेषु कालेषु योगयुक्तो भवार्जुन ॥

संधि विच्छेद

न इते सृती पार्थ जानन् योगी मुह्यति कश्चन ।
तस्मात् सर्वेषु कालेषु योग युक्तः भव अर्जुन ॥

अनुवाद

हे पार्थ! जो योगी इन दोनों मार्गों के तत्व को जानता है वह कभी भ्रमित नहीं होता| अतः हे अर्जुन! [तुम] हमेशा योग में युक्त हो(अर्थात ईश्वर प्राप्ति के साधन में संलग्न हो) |

व्याख्या

इस श्लोक में #२३ से लेकर #२६ तक के श्लोको का सारांश है| यह श्लोक इस तथ्य को भी स्पस्ट करने के लिए आवश्यक है कि ऊपर के चार श्लोकों में वास्तव में समय अंतराल नहीं बल्कि दो मार्गों का वर्णन है|

इसके ऊपर के श्लोकों में पांच प्रकार की अग्नि और उन पञ्च अग्नि का वर्णन है जिसे दो विभागों में विभक्त किया गया | इन दो विभागों को श्री रामानानुजचार्य ने सूर्य ज्योति तथा चंद्र ज्योति कर नाम दिया | वहीँ श्री शंकराचार्य ने ज्ञान और साकाम(अर्थात मोह युक्त) कर्म के मार्ग का नाम दिया| पहले मार्ग पर जाने वाला मनुष्य इस जीवन के बाद जन्म मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है वही दूसरे मार्ग पर जाने वाले व्यक्ति को पुनः जन्म लेना पडता है|
इन्ही दो मार्गों का सारांश इस श्लोक में दिया गया है| भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि जो भी मनुष्य इन दो मार्गों के तत्व को जानता है वह फिर इस जीवन में किसी भी परिवर्तन से विचलित या भ्रमित नहीं होता|

इसके बाद भगवान श्री ने अर्जुन को यह परामर्श दिया कि वह हमेशा ईश्वर की प्राप्ति के साधन में संलग्न हो | श्लोक में इस तथ्य को "योग युक्त" होना बताया गया है| योग का एक अर्थ आत्मा या जीव का परमात्मा के साथ संयोग भी होता है | इस प्रकार योग युक्त होने का अर्थ है परमात्मा से युक्त होना, परमात्मा की भक्ति से युक्त होना आदि|