अध्याय8 श्लोक3,4 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 8 : अक्षर ब्रम्ह योग

अ 08 : श 03-04

श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥
अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम्‌ ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥

संधि विच्छेद

अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावः अध्यात्म उच्यते ।
भूत भावः उद्भव करः विसर्गः कर्मसंज्ञितः ॥
अधिभूतं क्षरः भावः पुरुषः च अधिदैवतम्‌ ।
अधियज्ञः अहम् एव अत्र देहे देहभृतां वर ॥

अनुवाद

श्री भगवान बोले परम अक्षर ब्रह्म है, उसकी आतंरिक प्रकृति(स्वभाव) को अध्यात्म कहा जाता है| जैविक क्रियाओं को संपन्न करने वाला [बल] कर्म है| सभी नाशवान पदार्थ अधिभूत कहे जाते हैं, पुरुष [श्री कृष्ण का दैवीय प्रकटीकरण] दैवीय सत्ता(या देवताओं) का श्रोत है(अधिदैव है)| और हे पुरुष श्रेष्ठ(अर्जुन) मैं स्वयं सभी यज्ञों का मूल सिद्धांत(अधियज्ञ) हूँ जो सभी जीवित शरीरों में व्याप्त है| कुछ विद्वान जैसे रामानुजाचार्य श्लोक#३ का भिन्न अर्थ देते हैं जो इस प्रकार है "परम अक्षर ब्रह्म है, जीवों के स्वभाव को अध्यात्म कहा जाता है| जैविक क्रियाओं को संपन्न करने वाला [बल] कर्म है|"

व्याख्या

ऊपर के दो श्लोक श्रीमद श्रीमद भगवद गीता के सबसे कठिन श्लोकों में से हैं| इसका अंदाज़ इसी से लगाया जा सकता है कि श्री आदि शंकराचार्य, श्री माधवाचार्य, श्री रामानुजाचार्य और श्री प्रभुपाद द्वारा किये गए अनुवाद एक दूसरे से भिन्न हैं|ऊपर के श्लोक में प्रयोग किये गए ६ शब्दावलियां अपने आप में विस्तृत विषय हैं|
पिछले श्लोकों में अर्जुन ने श्री कृष्ण से एक ही साथ सात प्रश्न पूछ डाले| भगवान श्री कृष्ण ने उन सभी सातों प्रशों का उत्तर इस श्लोक में दिया है| उनके द्वारा दिए गए उत्तर ६ भिन्न भिन्न सनातन सिधान्तों की व्याख्या करते हैं| उनका सारांश इस प्रकार है|

१. ब्रह्म क्या है?
निःसंदेह ब्रह्म सनातन धर्म में सबसे अधिक महत्वपूर्ण शब्दों में से एक है| वेद और उपनिषद के वर्णित अधिकतर सिद्धांत ब्रह्म की परिभाषा के इर्द गिर्द घुमती है| ब्रह्म के विषय को पारिभाषित करता हुआ वेद की एक विधा जिसे ब्रह्म सूत्र कहा जाता है वह न सिर्फ वेद परन्तु सम्पूर्ण सनातन धर्म के सिद्धांत का मूल माना जाता है|

भगवान श्री कृष्ण ने बम्ह को दो शब्दों से पारिभाषित किया १. परमं और २ अक्षर | परमं का अर्थ होता है सर्वोच्च और अक्षर का अर्थ होता है अविनाशी| इस प्रकार ब्रह्म वह है जो इस ब्रम्हांड में सर्वोच्च है और अविनाशी है| ब्रह्म की यह परिभाषा वेद में दिए गए ब्रह्म
की परिभाषा के अनुरूप है|

यहाँ पर एक प्रश्न उठता है, कि अगर ब्रह्म सर्वोच्च इकाई है तों क्या ब्रह्म का अर्थ ईश्वर है या ब्रम्ह ईश्वर का प्रयायवाची शब्द है| जैसा श्रीमद भगवद गीता, वेद के पुरुष सूक्त, विष्णु सूक्त, रामायण, महाभारत और पुराणों को आधार माना जाए तों इस ब्रम्हांड में सर्वोच्च तों भगवान विष्णु हैं(श्री कृष्ण) जो ईश्वर हैं| इस हिसाब से तों भगवान विष्णु ही ब्रह्म हैं| इस मान्यता का प्रतिपादन श्री माधवाचार्य ने स्पस्ट शब्दों में किया है|
लेकिन श्रीमद भगवद गीता के अध्याय १४ के श्लोक में #३ में ब्रम्ह की एक और परिभाषा दी गई है, जो इस प्रकार है

मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
हे भारत, मेरी मूल प्रकृति यह गर्भ रूपी ब्रम्ह है, इसमे मैं अपनी आज्ञा का बीज स्थापित करता हूँ जिससे इस ब्रम्हांड में सभी जीवों की उत्त्पती होती है| (Ch14:Sh3)

ऊपर के श्लोक में यह पूर्ण स्पस्ट है कि ब्रह्म भगवान श्री कृष्ण की जीवनदायनी शक्ति है जिससे इस ब्रम्हांड में जीवन की उत्त्पति होती है| ब्रह्म अपने आप में ईश्वर नहीं| लेकिन ब्रह्म ईश्वर से एकीकार है, ईश्वर की मूल प्रकृति है | ईश्वर के साथ एकीकर होने से इसका सर्वोच्च होना अपने आप सिद्ध होता है| इसी आधार पर ब्रह्म का ईश्वर के प्रयायवाची शब्द के रूप में प्रयुक्त होना भी सिद्ध होता है|

२. अध्यात्म क्या है?
अध्यात्म क्या है? इसकी व्याख्या के बारे में भी विद्वानों में भेद है| श्री माधवाचार्य और श्री आदि शंकर ब्रह्म के मूल गुण को अध्यात्म मानते हैं, जबकि श्री रामानुजाचार्य ने जीवों के स्वभाव को अध्यात्म आनुवादित किया है| हालाकि दोनों में से किसी भी अर्थ को लेने से अंततः निष्कर्ष एक ही आत है| क्योंकि आत्मा ब्रम्ह का ही एक भाग है, इस प्रकार ब्रम्ह की मूल प्रकृति और आत्मा की मूल प्रकृति एक ही है|

३ कर्म क्या है?
कर्म की परिभाषा बताते हुए श्री कृष्ण ने कहा कि इस ब्रम्हांड में सभी जैविक क्रियाएँ कर्म कहलाती हैं| इसके अंतर्गत जीवों द्वारा किये गए सभी कार्य, जीवित शरीर में होने वाले सभी परिवर्तन कर्म की परिभाषा में आते हैं|

४. अधिभूत क्या है?

सभी नाशवान जीवित और अजीवित पदार्थ अधिभूत कहलाते हैं| इस प्रकार परिवर्तन के धरातल पर ब्रम्हांड के सभी पदार्थों को दो भागों में बांटा जा सकता है १. अविनाशी और २. नाशवान | यह तथ्य अगले अध्याय वर्णित है|
सभी दूसरे ग्रंथों में भी ब्रम्हांड के इस दो विभागों को भिन्न भिन्न रूप से पारिभाषित किया है | ब्रह्म और माया इसी विभाजन को प्रदर्शित करते हैं|

५. अधिदैव कौन हैं?

श्लोक के इस भाग के अनुवाद में भी विद्वानों में भेद है| इस श्लोक में पुरुष को अधिदैव बताया गया है| लेकिन पुरुष का अर्थ विभीन्न विद्वानों ने भिन्न रूप से लिया है| श्री रामानुजाचार्य जीवात्मा को पुरुष मानते हैं, जबकि माधवाचार्य और श्री आदि शंकर ने परमात्मा को पुरुष अनुवादित किया है| पुरुष एक व्यापक शब्द है और भिन्न भिन्न स्थानों पर इसका भिन्न भिन्न अर्थ होता है| श्रीमद भगवद गीता के अध्याय में पुरुष के तीन अर्थ स्पस्ट किये गए हैं उसमे से एक अर्थ है परमात्मा और दूसरा अर्थ है जीवात्मा| लेकिन ऊपर के श्लोक के [परिपेक्ष्य के अनुसार पुरुष का अर्थ परमात्मा ही उचित है क्योकि यह परमात्मा ही है जो देवताओं से उत्तम है, जीवात्मा कभी नहीं| अतः श्री माधवाचार्य और श्री आदि शंकर का अनुवाद ज्यादा उचित है|

६-७. अधियज्ञ कौन है जो जीओं में व्याप्त है?

पुनः यज्ञ एक अति व्यापक शब्द है| कोई भी ऐसी रासायनिक, भौतिक या जैविक प्रक्रिया जिसमे एक वस्तु दूसरे वस्तु को ग्रहण करे वह यज्ञ है| इसके अनुसार जीवित शरीर में होने वाली सभी जैविक क्रियाएँ यज्ञ के नियमों पर आधारित हैं| भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि वह स्वयं ही यज्ञों के मूल सिद्धांत को धारण करते हैं सभी जीवों के जीवन का समन्वय करंते हैं|

इस प्रकार भगवान ने एक एक करके अर्जुन के सभी सात प्रश्नों के उत्तर दिए