अध्याय8 श्लोक5 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 8 : अक्षर ब्रम्ह योग

अ 08 : श 05

अंतकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः ॥

संधि विच्छेद

अंतकाले च माम् एव स्मरन् मुक्त्वा कलेवरम्‌ ।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्ति यत्र संशयः ॥

अनुवाद

जो [मनुष्य] अपने अन्त समय में मेरा स्मरण करते हुए शरीर का त्याग करता है वह मेरे भाव को(अर्थात मुझे) प्राप्त करता है, इसमे कोई संदेह नहीं|

व्याख्या

अपने साथ प्रश्नों के साथ अर्जुन ने भगवान श्री कृष्ण से एक और अनुरोध किया और पूछा कि “कैसे एक भक्त भगवान श्री कृष्ण को अपने अन्त काल में भी जान सकता है?”. कृपा सिंधु भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन की पवित्र भावना को जानकार उसक उत्तर श्लोक #७ में दिया, वह यह कि एक मनुष्य जब जीवन में ईश्वर का भक्त होता है तब ही अन्त समय में भी ईश्वर की भक्ति उसमे स्थिर रहती है अन्यथा मृत्यु एक कठिन समय है और धैर्यवान भी इसमे अपनी मानसिक संतुलन को खो सकते हैं|

लेकिन उसके पहले भगवान श्री कृष्ण ने इस श्लोक में एक अत्यंत गुढ़ रहस्य का वर्णन किया,कि एक मनुष्य के लिए अंतिम समय तक ईश्वर को प्राप्त करने का अवसर रहता है| किसी कारणवश वह जीवन काल में ईश्वर का भक्त नहीं हो पाया लेकिन अन्त समय में भी अगर वह किसी भी प्रकार से ईश्वर को पूर्ण समर्पित होते हुए अपना शरीर त्यागता है तों उसे अभयदान प्राप्त होता है और वह ईश्वर को प्राप्त कर लेता है|

एक मनुष्य के लिए अंतिम समय तक ईश्वर की शरण में आने का अवसर होता है|