अध्याय8 श्लोक8 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 8 : अक्षर ब्रम्ह योग

अ 08 : श 08

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन्‌ ॥

संधि विच्छेद


अभ्यास योग युक्तेन चेतसा न अन्य गामिना
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थ अनुचिन्तयन्‌ ॥

अनुवाद

हे पार्थ ! बिना विचलित हुए मन में परमेश्वर का निरंतर चिंतन(ध्यान) करते हुए योग का अभ्यास करने वाला मनुष्य दिव्य परमात्मा को प्राप्त करता है|

व्याख्या

इस श्लोक में भगवान ने श्लोक#२ में अर्जुन के द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर दिया है| अर्जुन ने प्रश्न किया ठाट जो इसा प्रकार है
“कैसे एक दृढ आत्मयुक्त (ईश्वर भक्त) अन्तकाल में आपको जान सकता हैं?”
भगवान श्री कृष्ण ने इस श्लोक में यह स्पस्ट किया किमनुष्य का अन्त समय बहुत विकट होता है और धीर गंभीर व्यक्ति के लिए भी वैसे समय में मन को स्थिर करना दुर्लभ होता है| जैसे सभी अन्य कार्य अभ्यास से सिद्ध होते हैं वैसे ईश्वर के प्रति स्थिर भक्ति भी अब्यास से सिद्ध होता है| उदाहरण के लिए एक खिलाडी जो ओलम्पिक में भाग ले रहा है वह वहाँ आने से पहले लंबे समय तक अभ्यास करता है और तभी वह उतने बड़े आयोजन में, इतने लोगों के सामने विचलित नहीं होता| इसी प्रकार जो मनुष्य नियमित ईश्वर का ध्यान करता है, ईश्वर की साधना करता है वह जीवन के अन्त समय जैसे विकट परिस्थिति में भी ईश्वर को अपने मन में स्थित रख पाता है|

हमे ध्यान देना चाहिए कि इसके पहले दो श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि जो मनुष्य अपने अन्त समय में ईश्वर (अर्थात भगवन श्री कृष्ण का) ध्यान करता है वह श्री कृष्ण को प्राप्त करता हैं| वहाँ यह प्रश्न उठता है कि कैसे कोई पूरी जिंदगी बुरा काम करे और सिर्फ अन्त समय में ईश्वर को मन में धारण कर ले औत मुक्त हो जाए| ऊपर के श्लोक से उस शंका का भी निवारण हो जाता है