अध्याय9 श्लोक15 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 15

ज्ञानयज्ञेन चाप्यन्ये यजन्तो मामुपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतोमुखम्।।

संधि विच्छेद

ज्ञानयज्ञेन च अपि अन्ये यजन्तः माम उपासते।
एकत्वेन पृथक्त्वेन बहुधा विश्वतः मुखम्।।

अनुवाद

दूसरे [साधक] मुझे एक मानकर मेरे विश्व रूप(विराट रूप) का ज्ञान रूपी यज्ञ से और अन्य मेरे विविध रूपों और गुणों का विभिन्न विधियों (अनुष्ठानो) से मेरी आराधना करते हैं|

व्याख्या

यह श्लोक श्रीमद भगवद गीता ही नहीं बल्कि पुरे सनातन धर्म के सबसे महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है और यह सभी धर्मो में व्याप्त एक बहुत बड़े प्रश्न का उत्तर देता है| एक देववाद बनाम बहु देव वाद धर्मो के बीच एक बहुत बड़े विवाद का विषय हैं| लोगों में भी इस विषय पर बड़े भ्रम की स्थिति बनी रहती है|

लेकिन श्रीमद भगवद गीता और सनातन धर्म के हिसाब से यह कोई प्रश्न ही नहीं और न ही कोई विवाद है| बल्कि यह एक बृहद सत्य को देखने के दो आधार हैं| इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने दोनों ही दृष्टिकोण को स्पस्ट किया है|

यह पूरा ब्रम्हांड भगवान श्री कृष्ण स्वयं है, एक एक कण, एक एक जीव उनमे ही स्थित है| इसलिए इस यह पूरा ब्रम्हांड और भगवान श्री कृष्ण एक ही इकाई हैं उसके सिवाय और कुछ नहीं| भगवान का विश्वरूप या ब्रम्हांड रूप को अनुभव नहीं किया जा सकता सिर्फ और सिर्फ ज्ञान से समझा जा सकता है| इस प्रकार जो भगवान श्री कृष्ण की आराधन करता है वह सिद्धांत रूप से एक देव वाद की परिभाषा को सिद्ध करता है| वास्तव में यह सिद्धांत सनातन धर्मं एक एक अति महत्वपूर्ण सिद्धांत है जिसे अद्वैत वाद कहा जाता है| अद्वैत के संस्थापक महान ऋषि आदि शंकराचार्य हैं|(इसके सिवाय अगर कोई मनुष्य कुछ और तथ्य को एक देव वाद के रूप में परिभाषित करना चाहे तों गलत है|)

लेकिन जैसा हम जानते हैं हम अपने वास्तविक जीवन में नाना प्रकार की वस्तुएं, नाना प्रकार के जीव को देखते हैं,पदार्थों और जीवों के भिन्न भिन्न गुणों का अनुभव करते हैं| किसी भी मनुष्य के लिए यह सोचना की विविधता से पूर्ण यह संसार भिन्न भिन् नहीं बल्कि एक है अत्यंत कठिन है| जब हम मनुष्य बुधि के इस स्तर पर आते हैं वो विविधना अपने आप सिद्ध होती है| इस विविधता में साधारण जीव ही नहीं ईश्वर भगवान श्री कृष्ण के विविध रूप और गुण प्रकट होते हैं| मनुष्यों के इस संसार में भगवान श्री कृष्ण भिन्न भिन्न गुणों के साथ अवतरित होते हैं|
मनुष्य अपनी अपनी भावनानुसार ईश्वर के एक या दूसरे रूपों या गुणों की भिन्न भिन्न उपासना पद्धति का प्रयोग करते हुए उपासना करते हैं|

यही नहीं श्रीमद भगवद गीता में भगवान श्री कृष्ण ने स्पस्ट किया है कि देवता भी उनकी ही प्रकृति से उत्पन्न हुए है और उनके ही रूप है | देवता मनुष्यों के स्वाभाविक अभिभावक है और इसलिए मनुष्य देवताओं की उपासना भी करते हैं| यह प्रक्रिया बहु देव वाद की धारणा को सिद्ध करता है|

इस प्रकार एक देववाद और बहु देव वाद दो भिन्न भिन्न अवस्थाएं है|अध्यात्मिक स्तर पर इनके परिणाम में कोई भिन्नता नहीं| भगवान श्री कृष्ण ने स्पस्ट वर्णित किया है कि कोई भक्त चाहे कैसे भी उनकी आराधना करे, हर एक साधना उनतक ही पहुंचती है