गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥
तपाम्यहमहं वर्षं निगृह्णाम्युत्सृजामि च ।
अमृतं चैव मृत्युश्च सदसच्चाहमर्जुन ॥
संधि विच्छेद
गतिः भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् ।
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजम् अव्ययम्॥
तपामि अहम् अहम् वर्षं निगृह्णामि उत्सृजामि च।
अमृतं च एव मृत्युः च सत् असत् च अहम् अर्जुन ॥
अनुवाद
मैं सभी जीवों का [अंतिम] लक्ष्य हूँ, सबका भर्ता(भरण पोषण करने वाला), सबका स्वामि, सभी [के कर्मो] का साक्षी, सबका परम धाम और सबको शरण प्रदान करने वाला हूँ| मैं ही प्रारंभ और मैं ही प्रलय हूँ| मैं ही धरातल, मैं ही निधान(आराम का स्थान) | मैं ही [सभी जीवों का] अविनाशी बीज हूँ| मै ही ऊष्मा(ताप) हूँ, मैं ही वर्षा की उत्पत्ति और इसकी निष्पति करता(वर्षा को रोकता) हूँ| मैं अमरता और मैं ही मृत्यु हूँ तथा [किसी पदार्थ का] होना न होना भी मैं ही हूँ|