अध्याय9 श्लोक22 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 22

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्‌ ॥

संधि विच्छेद

अनन्य चिन्तयन्तः मां ये जनाः पर्युपासते ।
तेषां नित्य अभियुक्तानाम् योगक्षेमं वहामि अहम् ॥

अनुवाद

जो [मनुष्य] कुछ और न चाहकर सिर्फ मेरे अनादि रूप का निरंतर ध्यान करते हुए नित्य मेरी साधना करते हैं उनके भाग्य की कुशलता का भार मैं स्वयं वहन करता हूँ| या जो [मनुष्य] कुछ और न चाहकर सिर्फ मेरे अनादि रूप का निरंतर ध्यान करते हुए नित्य मेरी साधना करते हैं उनके प्रारब्ध को मैं स्वयं संरक्षित करता हूँ||

व्याख्या

पिछले श्लोक में यह वर्णन किया गया कि भक्तों का एक वह वर्ग होता है जो स्वर्ग की कामना या उच्च पारलौकिक जीवन की कामना से पुण्य कार्य करता है तथा देवताओं और ईश्वर की साधना करता है| निःसंदेह उनका कर्म पुण्य से युक्त है और उनकी साधना सफल होती है तों वे अगले जन्म स्वर्ग अर्थात देवलोक में जन्म लेकर वे सभी सुखों का भोग करते हैं|

लेकिन भक्तों एक दूसरा वर्ग भी होता है,जिसे किसी चीज़ की कामना नहीं होती वह सिर्फ और सिर्फ भगवान कृष्ण की चाह रखता है| वह श्री कृष्ण के किसी भी अवतरित रूप को अपने हृदय में धारण करके निरंतर उनका ही चिंतन करता है|

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि वैसा भक्त उनकी अपनी जिम्मेदारी में आ जाता है और श्री कृष्ण स्वयं उस भक्त के प्रारब्ध का सरंक्षण करते हैं| हम ज्ञात हो कि सभी प्रकार के कर्मो जैसे अर्जित कर्म और संचित कर्मो का योग प्रारब्ध कहलाता है जिसे दूसरे अर्थों में भाग्य भी कहा जाता है| इसी अध्याय के श्लोक २९ में श्री कृष्ण ने वर्णित किया है कि वैसे तों सभी जीव उनके लिए समान हैं लेकिन जो भक्त सभी इक्षाओं का त्याग कर सिर्फ उनके भक्ति में लीन होता है वह भक्त श्री कृष्ण का अपना होता है| उस भक्त का ईश्वर के ऊपर वैसा ही अधिकार होता है जैसे एक बालक का अपने माता या पिता पर |और श्री कृष्ण भी उस भक्त को वैसे ही अपनाते हैं जैसे माता या पिता अपने बच्चे को|