अध्याय9 श्लोक23 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 23

येऽप्यन्यदेवता भक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः ।
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम्‌ ॥

संधि विच्छेद

ये अपि अन्य देवता यजन्ते श्रद्धया अन्विताः ।
ते अपि माम एव कौन्तेय यजन्ति अविधिपूर्वकम्‌ ॥

अनुवाद

हे कुन्तीपुत्र(अर्जुन)! जो [मनुष्य] व्यक्तिगत श्रधा के कारण अन्य देवताओं का पूजन करते हैं, वास्तव में वे भी मेरा ही पूजन करते हैं लेकिन अपरोक्ष रूप से|

व्याख्या

यह बहुदेववाद की प्रक्रिया को व्यक्त करने का एक महत्वपूर्ण श्लोक है| इस श्लोक में भगवान ने यह स्पस्ट किया कि जो मनुष्य दूसरे देवताओं की पूजा करते हैं वह भी अपरोक्ष रूप से श्री कृष्ण की ही साधना करते हैं|
ज्ञात हो कि अध्याय चार में भगवान श्री कृष्ण ने यह वर्णित किया था की मानवों और दूसरे जीवों की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए श्रृष्टि के आरम्भ में देवताओं की रचना की गई| देवता मनुष्यों के अभिभावक के समान हैं जो जो मनुष्यों की भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं ओर मनुष्य यज्ञ ओर दूसरी अन्य विधियों से देवताओं को प्रसन्न करते हैं | यह विधान ईश्वर द्वारा तय किया गया है|

प्रजापति ब्रह्मा ने कल्प के आदि में यज्ञ द्वारा सभी जीवों को रचकर उनसे कहा कि तुम लोग इस यज्ञ द्वारा वृद्धि को प्राप्त हो ओ और यह यज्ञ तुम लोगों को इच्छित भोग प्रदान करने वाला हो॥
----Ch3:Sh10

तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं को प्रसन्न करो और वे देवता तुम लोगों का पालन(देखभाल) करें। इस प्रकार निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे में सामंजस्य रखते हुए तुम(देवता और मनुष्य) परम कल्याण को प्राप्त होगे॥
--Ch3:Sh11

अतः देवताओं की साधना एक उचित धार्मिक प्रक्रिया है ओर बहुदेववाद की वैधता को सिद्ध करता है|

सभी देवता ईश्वर के ही प्रतिनिधि है अतः देवताओं को अर्पित की गई साधना भी ईश्वर श्री कृष्ण तक ही पहुंचती है| जैसे आयकर किसी भी राज्य के जिले में जमा किया जाए वह अंततः देश की सरकार के पास ही पहुँचता है|