अध्याय9 श्लोक24 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 24

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ॥

संधि विच्छेद

अहं हि सर्व यज्ञानां भोक्ता च प्रभुः एव च ।
न तु माम् अभिजानन्ति तत्त्वेन् अतः च्यवन्ति ते ॥

अनुवाद

क्योंकि सभी यज्ञों का भोक्ता(यज्ञों को ग्रहण करने वाला) ओर स्वामि मैं ही हूँ| जो मेरे इस स्वरूप को तत्व से नहीं जानते वह पतन को प्राप्त होते हैं|

व्याख्या

पिछले श्लोक एम् श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि दूसरे देवताओं को अर्पित साधना भी अंततः उनतक ही पहुँचती है| इस श्लोक में पिछले श्लोक के तथ्य की व्याख्या है| इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि कोई सभी यज्ञों या हवनो के भोक्ता एकमात्र वह स्वयं है|इसलिए कोई भी यज्ञ किसी भी देवता के नाम से किया जाए सिर्फ वह ही उस यज्ञ में समर्पित सभी आहुतियों को ग्रहण करते हैं| अतः किसी दूसरे देवता को अर्पित साधना भी अंततः श्री कृष्ण तक ही पहुँचती है|

श्री कृष्ण ही सभी यज्ञों के भोक्ता है इसलिए श्री कृष्ण को अधियज्ञ भी कहा जाता है, जिसका वर्णन अध्याय आठ में है| अर्जुन के प्रश्नों का उत्तर देते हुए श्री कृष्ण ने कहा

अधियज्ञः अहम्
सभी यज्ञों का भोक्ता या मूल सिद्धांत(अधियज्ञ) मैं हूँ|

यज्ञ से सम्बंथित तथ्य को ओर स्पस्ट करने के लिए हमे यह ज्ञात होना चाहिए कि भगवान श्री कृष्ण ने २२ अवतारों में “यज्ञ” एक अवतार है जो जो क्रम में छठे स्थान पर आता है |

इस श्लोक से इस प्रकार यज्ञ का मूल तथ्य स्पस्ट होता है| जो मनुष्य किसी ओर विचार या समझ से यज्ञ करते हैं वह यज्ञ की वास्तविकता से दूर होकर भटक जाते हैं| ऐसे मनुष्यों को फिर यज्ञ का मन वांछित फल प्राप्त नहीं होता है उनके यज्ञ को मिथ्या होने का खतरा होता है|