अध्याय9 श्लोक27,28 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 27-28

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्‌ ।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्‌ ॥
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्य से कर्मबंधनैः ।
सन्न्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि ॥

संधि विच्छेद

यत् करोषि यत् अश्नासि यत् जुहोषि ददासि यत्‌ ।
यत् तपस्यसि कौन्तेय तत् कुरुष्व मत अर्पणम्‌ ॥
शुभ अशुभ फलैः एवं मोक्ष्य से कर्मबंधनैः ।
सन्न्यास योग युक्त आत्मा विमुक्तः माम् उपैष्यसि ॥

अनुवाद

हे अर्जुन! तुम जो कुछ करते हो,खाते हो, यज्ञ करते हो,जो कुछ दान करते हो, ओर जो तप करते हो, वह सब मुझे अर्पित कर दो| इस प्रकार तुम कर्मो के शुभ ओर अशुभ प्रभावों ओर कर्मों के बंधन से मुक्त हो जायोगे | सन्यास योग की इस विधि से युक्त(पालन करते हुए) ओर [सभी बंधनों से] मुक्त होकर तुम मुझे प्राप्त करोगे|

व्याख्या

उपर्युक्त २ श्लोक निष्काम कर्म के सिद्धांत के सबसे महत्वपूर्ण श्लोकों में से हैं ओर निष्काम कर्म एक पूर्ण विभाग की विवेचना करते हैं|

जिन्होंने कर्म के सिद्धांत पढ़ा हो, उन्हें यह ज्ञात होगा कि किसी जीव द्वारा किये गए किसी कर्म के 3 अवयव होते हैं. 1. किसी कार्य का होना २. कार्य का फल ३ ओर कर्ता
हलाकि कर्म एक बहुत विस्तृत विषय है ओर इसमे ब्रम्हांड में प्रतिपल होने वाले परिवर्तन शामिल हैं लेकिन यहाँ व्याख्या को हम जीव ओर खासकर मनुष्य द्वारा किये कर्मो तक सीमित रखेंगे|
जब भी कोई कर्म चाहे वह अच्छा हो या बुरा उसका कोई न कोई फल होता ही है|
यह अलग बात है कि कई कर्म होते हैं ओर उनसे होने वाला प्रभाव कम या नगण्य होता है| कई बार कर्म के प्रभाव तुरंत नहीं आते बल्कि उसका फल आने में समय लगता है| इसलिए कई बार हम इस बात पर ध्यान नहीं देते की हर एक कर्म का फल होना निश्चित है| कर्म को करने वाला अर्थात कर्ता कर्म के फल का भागी होता है| अगर मनुष्य ने सुख भोगने की इक्षा से अच्छा कर्म किया है तों अगले जन्म में उन फलों को भोगने ने लिए उसे शरीर धारण करना पड़ेगा| वह मनुष्य किस शरीर में ओर किस लोक में जायेगा यह उसके द्वारा किये गए कर्मो पर निर्भर है| जो मनुष्य स्वर्ग की लालसा से अच्छे कर्म करते हैं सफल होने पर स्वर्ग में देवता के शरीर में जन्म लेकर स्वर्ग का सुख भोगते हैं| जो मनुष्य किसी ओर लालसा से अच्छे कर्म करते हैं जिसका भोग वह मनुष्य के शरीर में ही कर सकते हैं तों फिर वह मानुष के रूप में जन्म लेते हैं|
जो मनुष्य बुरा कर्म करते हैं उनको अपने बुरे कर्मो का ऋण उतारने के लिए किसी न निसी शरीर में जन्म लेंगा पडता है ओर उस दुःख को भोगने पडता है जो उन्होंने अपने बुरे कर्मो के फल के रूप में दूसरों को भोगना पड़ा|

इस प्रकार मनुष्य किसी इक्षा से चाहे अच्छा कर्म करे या बुरा कर्म करे वह कर्म के फल के साथ बंध जाता है ओर उसे पुनः शरीर धारण करना ही पड़ता है|
यह तथ्य अध्याय ३ में भगवन श्री कृष्ण ने स्पस्ट किया है


“यज्ञ के लिए किये गए कर्म के अतिरिक्त सभी अन्य कर्म मनुष्यों को कर्म के फल में बांधते हैं |”--(Ch3:Sh9)

कर्मो के फल के साथ यह बंधन के कारण व को बार बार जन्म लेना पडता है| कर्मो बंधन से मुक्त होने से जीव जन्म ओर मरण के बंधन से भी मुक्त हो जाता है| कर्मो के बंधन से मुक्ति को ही मोक्ष कहा जाता है| यह प्रत्येक जीव का परम लक्ष्य होता है|
पुरे सनातन धर्म के सभी सिद्धांत, सभी योग इस मोख की अवस्था को प्राप्त करने का उपाय बताते हैं| योग की किसी भी विधा का पालन करते हुए मनुष्य मोक्ष की अवस्था को प्राप्त कर सकता है, लेकिन योग का कोई भी मार्ग आसान नहीं|

ऊपर के श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने जिस मार्ग या उपाय का वर्णन किया है यह सबसे आसन ओर प्रभावी है | यही इन श्लोकों की उपयोगिता है|

भगवान श्री कृष्ण ने यह निष्कर्ष दिया कि जो मनुष्य अपना हर कार्य भगवान श्री कृष्ण को अर्पित कर देता है वह फिर उस कर्म के फल के बंधन से मुक्त हो जाता है| मनुष्य द्वारा प्रत्येक कर्म श्री कृष्ण को अर्पित कर देने से उस कर्म के फल का प्रभाव श्री कृष्ण स्वयं वहन करते हैं ओर मनुष्य उस कर्म के फल के प्रभाव या बंधन से मुक्त हो जाता है| इस जन्म की बाद उसके लिए पुनः लौकिक शरीर धारण करने का कारण समाप्त हो जाता है| वह मनुष्य मोक्ष प्राप्त करता है|

इन दोंनो श्लोकों की अंतिम पंक्ति में सन्यास योग की परिभाषा भी स्पस्ट होती है| कर्म का त्याग सन्यास नहीं जैसा कि अध्याय पांच में वर्णित है, बल्कि कर्मो के फलों का त्याग सन्यास कहलाता है| सन्यास की सबसे शुद्ध ओर उत्तम परिभाषा यह है कि मनुष्य अपने सारे कर्म ईश्वर को अर्पित कर दे| जिससे वह उनके प्रभाव से मुक्त हो जाए|