अध्याय9 श्लोक29 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 29

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम्‌ ॥

संधि विच्छेद

समः अहम् सर्वभूतेषु न मे द्वेष्यः अस्ति न प्रियः ।
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु च अपि चाप्यहम्‌ ॥

अनुवाद

मेरे लिए सभी जीव समान है, मेरा न कोई प्रिय है न अप्रिय| परन्तु जो भक्ति पूर्वक मेरी साधना करता है वह मेरा अपना होता है और मैं उसका|

व्याख्या

प्रस्तुत श्लोक ईश्वर की सार्वभौमता और उसके न्याय को इंगित करता एक अति महत्वपूर्ण है| यह इकलौता श्लोक सच्चे ईश्वर की व्याख्या करने के लिए पर्याप्त है| भगवान श्री कृष्ण ने इस श्लोक में यह स्पस्ट शब्दों में इसकी घोषणा की कि उनके लिए सिर्फ मनुष्य ही नहीं बल्कि सभी जीव एक समान हैं| कोई जीव न उनके लिए प्रिय है न अप्रिय| पूर्ण जगत के निर्मत श्री कृष्ण किसी भी समय, किसी भी रूप में एक जीव और दूसरे जीव में कोई भेदभाव नहीं करते|

अगर हम तार्किक रूप से भी ईश्वर की परिभाषा तय करें तों यही परिभाषा बनती है| एक ईश्वर जिसने सम्पूर्ण श्रृष्टि की रचना की सभी जीवों को जीवन दिया कैसे किसी भी जीव में भेदभाव कर सकता है| अगर ईश्वर एक जीव को दूसरे जीव से या एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से कम या ज्यादा माने तों उसके ऊपर पक्षपात का आरोप लगेगा| जो पक्षपात करे वह किसी भी रूप से ईश्वर नहीं हो सकता|

इस श्लोक के दूसरे भाग में भगवान ने ईश्वर और भक्त के बीच विशेष सम्बन्ध का भी वर्णन किया है| श्री कृष्ण ने कहा कि वह किसी जीव में भेद भाव नहीं करते लेकिन जो श्री कृष्ण के अनन्य भक्त होता है वह श्री कृष्ण का अपना हो जाता है और श्री कृष्ण उस भक्त के हो जाते हैं| जैसे एक बच्चे का अपने माता पिता पर पूर्ण अधिकार होता है वैसे ही एक भक्त का अपने ईश्वर पर| अतः इस श्लोक में एक बार फिर से भक्ति की श्रेष्ठता भी सिद्ध होती है|