अध्याय9 श्लोक30 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 30

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्‌ ।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवसितो हि सः ॥

संधि विच्छेद

अपि चेत्सु दुराचारोः भजते माम अनन्यभाक्‌ ।
साधुः एव स मन्तव्यः सम्यक अव्यवसितो हि सः ॥

अनुवाद

यदि कोई दुराचारी भी [अपने सभी पाप कर्मो को सदा के लिए त्यागकर] अनन्य भाव से मेरी भक्ति करता है तों उसे भी साधु समझना चाहिए क्योंकि [पापी जीवन से साधुत्व जीवन में परिवर्तित होकर] उसने विशाल दृढ़ता का परिचय दिया है|

व्याख्या

इस श्लोक में सनातन धर्म के एक अति महत्वपूर्ण सिद्धांत का वर्णन है| कोई भी मनुष्य या जीव जन्म से अच्छा या बुरा नहीं होता बल्कि अच्छे या बुरे कर्म करने से समाज में उसकी अच्छी या बुरी पहचान बनती है| मनुष्य को अच्छा या बुरा कहना एक सामाजिक प्रक्रिया है| चूँकि समाज में एक जीवित इकाई के इकाई के रूप में मनुष्य की पहचान उसके भौतिक शरीर से होती है इलसिए उस शरीर द्वारा जो भी अच्छा या बुरा कर्म किया जाता है उसे उस शरीर से पहचान होने वाले मनुष्य के प्रति समाज की धारणा बनती है| अध्यात्मिक स्तर पर तों प्रत्येक जीवात्मा पवित्र ही होता है| इस तथ्य का वर्णन श्रीमद भगवद गीता और दूसरे सनातन ग्रंथों कम स्पस्ट रूप से किया गया है

यह आत्मा अव्यक्त(अदृश्य), अचिन्त्य और विकार रहित है|
--Ch2:Sh26

उससे भी बड़ा तथ्य यह है कि समाज में शायद ही ऐसे मनुष्य हों जिन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया | सौ प्रतिशत अच्छा या बुरा कर्म करने वाले मनुष्य नहीं बिरले ही होंगे| मुख्य रूप से तीन प्रकार के की श्रेणियाँ हैं लोगों की
१.वे जो अधिकतर गलत कार्य करते हैं
२.वैसे मनुष्य जो छोटे मोटे गलत कार्य करते हैं और कई अच्छे कार्य करते हैं
३. वैसे मनुष्य जो अधिकतर अच्छे कार्य करते हैं

पहले श्रेणी के लोग वह होते हैं जो अपराधी या दुराचारी कहे जाते हैं| तीसरे श्रेणी के लोग महान संत, योगी या सन्यासी होते हैं| इस श्रेणी के लोग गिने चुने ही होते हैं| अधिकतर मनुष्य दूसरे श्रेणी में आते हैं| कई बार मनुष्यों में यह पाया गया है कि कोई मनुष्य अच्छे परिवार ने जन्म लेते हुए भी बाद में अपराधी बन जाते हैं| वहीँ दूसरी ओर कई ऐसे लोग होते हैं जो शुरुआत में बुरे होते हैं लेकिन बाद में अच्छे मनुष्य बन जाते हैं|
इस श्लोक में वैसे ही लोगों का वर्णन है| भगवान श्री कृष्ण ने इस श्लोक में स्पस्ट किया कि अगर कोई मनुष्य सभी पाप कर्मो को सदा के लिए त्यागकर पश्चाताप कर लेता है और ईश्वर का अनन्य भक्त बनकर अच्छे कर्मो में लिप्त होता है तों वह भी साधु कहलाने के योग्य है| कर्म के सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक प्राणी को उसके कर्मो का फल तों मिलता ही है लेकिन जब वही मनुष्य अच्छा कर्म करता है तों उसको उसके अच्छे कर्मो का भी फल प्राप्त होता है|

हर हाल में अच्छे या बुरे कर्म ही होते हैं स्वयं मनुष्य नहीं.| एक ही मनुष्य दोनों अच्छा और बुरा कर्म कर सकता है|
अगर कोई व्यक्ति जीवन के किसी भी काल में ईश्वर की शरण में आकार एक संत प्रवृति को अपनाना है तों वह साधु कहलाने का भागी बनता है| घृणा बुरे कर्मो से करना चाहिए मनुष्य से नहीं|