अध्याय9 श्लोक31 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 31

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥

संधि विच्छेद

क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वत शांति निगच्छति ।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति ॥

अनुवाद

[लगातार मेरी भक्ति करता हुआ] वह [मनुष्य] शीघ्र [सभी दुर्गुणों से मुक्त होकर] ही धर्मात्मा हो जाता है और शाश्वत(सदा अक्षुण रहने वाली) शांति को प्राप्त करता है| हे कुन्तीपुत्र(अर्जुन) मेरे वचन को जान लो कि मेरा भक्त कभी नष्ट नहीं होता (या मेरे भक्त का कभी पतन नहीं होता)|

व्याख्या

यह श्लोक पिछले श्लोक के साथ पढ़ा जाना चाहिए| पिछले श्लोक से आगे बताते हुए श्री कृष्ण ने कहा कि कोई ऐसा व्यक्ति जिसने अपने सभी पाप त्यागकर ईश्वर की शरण में आना स्वीकार किया और पूर्ण रूप से ईश्वर की भक्ति एम् लीन हो जाता है और अपने आप को पुण्य कार्यों में लिप्त करता है, वह शीघ्र ही अपने सभी दुर्गुणों से मुक्त हो जाता है|

अतः इन दोनों श्लोकों से भगवान श्री कृष्ण ने यह स्थापित किया कि कि अच्छा या बुरा मनुष्य का कर्म होता है |जबतक एक मनुष्य बुरा कर्म करता है वह बुरा है लेकिन अगर वह अपने सभी बुरे कार्यों को छोड़कर अगर ईश्वर की शरण में आ जाता है शुद्ध भक्ति में संलग्न होता है तों धीरे धीरे उसके दुर्गुण नष्ट हो जाते हैं|अगर वह सच्चाई से ईश्वर की भक्ति में लगातार लीन रहा तों एक समय के बाद वह पवित्र होकर धर्मात्मा बन जाता है|

लेकिन इसी श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने एक बार फिर से भक्ति योग की श्रेष्ठता का वर्णन भी किया है| इस श्लोक से यह स्पस्ट रूप से सिद्ध होता है कि भक्ति वह शक्ति है जो एक दुराचारी को भी धर्मात्मा बना दे| ईश्वर की

भक्ति एक सुरक्षा कवच है|जो एक बार ईश्वर की शरण में आ जाता है उसका फिर पतन नहीं होता| हो सकता है किसी मनुष्य ने जीवन में गलत कार्य किये हो जिसका फल तों तों मनुष्य को भुगतना ही पड़ेगा| लेकिन पश्चाताप करते हुए अगर वह सभी बुरे कर्मो को त्याग कर ईश्वर की शरण में आ जाता है तों फिर उसका भविष्य सुरक्षित हो जाता है| धीरे धीरे वह पवित्र होकर परम शांति को प्राप्त करता है|