अध्याय9 श्लोक3 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 03

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्यास्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्युसंसारवर्त्मनि ॥

संधि विच्छेद

अश्रद्दधानाः पुरुषा धर्मस्य अस्य परन्तप ।
अप्राप्य मां निवर्तन्ते मृत्यु संसार वर्त्मनि ॥

अनुवाद

हे परन्तप(अर्जुन)! जिन मनुष्यों की धर्म में श्रधा नहीं होती वह मुझे कभी नहीं प्राप्त कर पाते, और इस मृत्युलोक में [बार बार जन्म लेकर] विचरण करते रहते हैं|

व्याख्या

धर्मं के विषय पर यह एक अति महत्वपूर्ण श्लोक है| इस श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि जिन मनुष्यों की धर्म में निष्ठा नहीं होती, वह श्री कृष्ण को कभी प्राप्त नहीं कर पाट बल्कि इस बार बार इस मृत्यु लोक में जन्म लेने के लिए बाध्य होते हैं|

इस प्रकार इस श्लोक से यह स्पस्ट होता है कि धर्म में श्रधा मोक्ष प्राप्ति की सबसे पहली शर्त है|

यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस श्लोक में "धर्म" शब्द का प्रयोग है | धर्म एक विस्तृत शब्द है जिसमे धार्मिक और अधार्मिक कई प्रकार के आचार व्यवहार और कर्म शामिल होते हैं

वैसा कोई भी कार्य जिससे किसी मानव मात्र, समाज या किसी जीव का कल्याण होता हो वह भी धर्म ही कहलाता है| इसके और उच्च कोटि के अर्थ अनुसार, बिना स्वार्थ के निष्काम कर्म करते हुए जीवन यापन धर्म है|

अगर इसे धार्मिक स्तर पर समझे तों तों वेद, श्रीमद भगवद गीता, रामायण आदि ग्रंथों का पालन करना धर्म है| इन पवित्र ग्रंथों के पालन से मनुष्य स्वयं ही पवित्र जीवन शैली को प्राप्त करता है जो उसके लिए मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है|

जो मनुष्य योग के रहस्य को जान लेता है उसे यह ज्ञात होता है कि यह भौतिक शरीर अंतिम सत्य नहीं और इसलिए वह इस शरीर का सदुपयोग मुक्ति की प्राप्ति के लिए करता है|

लेकिन अगर कोई मनुष्य धर्म में श्रधा ही नहीं रखता और शरीर और इस मृत्युलोक को ही अंतिम सत्य मानकर जीवन यापन करता है फिर यह मृत्यु लोक वास्तव में उसके लिए अंतिम सत्य बन जाता है, वह फिर इस मृत्युलोक से बाहर नहीं जा पाता|उसे बार बार किसी न किसी शरीर में जन्म लेकर इस मृत्युलोक में आना ही पडता है|