अध्याय9 श्लोक5 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 05

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्‌ ।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥

संधि विच्छेद

न च मत् स्थानि भूतानि पश्य मे योगम् ईश्वरम्‌ ।
भूत भृत च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः ॥

अनुवाद

तथापि [इस संसार के] ये जीव मुझमे स्थित नहीं, किन्तु देखो मेरी दिव्य योग [शक्ति] को कि जीवों में व्याप्त होते हुए मेरा आत्मा सभी जीवों का भरण पोषण करता है|

व्याख्या

पिछले श्लोक से आगे भगवान श्री कृष्ण इस श्लोक में भी श्रृष्टि निर्माण के गुढ़ रहस्य का वर्णन कर रहे हैं| पिछले श्लोक में भगवान ने भौतिक जगत के निर्माण से सम्बंधित तथ्य की व्याख्या की जो इस प्रकार हैं
१. श्री कृष्ण ने अव्यक्त रुप से श्रृष्टि का श्रृजन
२. सभी जीव परोक्ष रूप से ईश्वर पर निर्भर हैं
३. ईश्वर स्वतन्त्र है और किसी भी इकाई पर निर्भर नहीं

इस श्लोक में श्री कृष्ण जीव जीवन की उत्पत्ति और उसके आधार का वर्णन कर रहे हैं|
इस श्लोक में दिए तथ्य इस प्रकार हैं
१. जीव परमात्मा में भौतिक रूप से स्थित नहीं होते अर्थात परमात्मा एक पात्र नहीं जिसमे आत्मा स्थित हैं |
२. परमात्मा अर्थात श्री कृष्ण की आत्मीय शक्ति सभी जीवों में व्याप्त है|
३. परमात्मा की आत्मीय शक्ति सभी जीवों में जीवन का आधार है|

ऊपर के तथ्यों में परमात्मा और जीवात्मा के बीच में सम्बन्ध की व्याख्या की गई है| श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि परमात्मा और आत्मा का सम्बन्ध पात्र और वस्तु की तरह नहीं | यह सम्बन्ध कैसा है इसकी व्याख्या अगले श्लोक में की गई है जहाँ श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया की परमात्मा आकाश की तरह है और जीवात्माएं वायु के कण की भांति है | यद्यपि वायु सर्वथा आकाश में स्थित रहता है और परन्तु न तों आकाश एक पात्र है और ना भी वायु पात्र में स्थित वस्तु|

अगर विज्ञान के आधार पर इसकी व्याख्या करें तों परमात्मा एक क्षेत्र(field) की भांति है| field का अर्थ यहाँ पर जैस चुम्बकीय क्षेत्र, गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र आदि| वास्तव में आकाश बी एक क्षेत्र ही है जिसे ईथर कहा जाता है| जैसे चुम्बकीय क्षेत्र, आकाश हर जगह स्थित होता है, अंदर भी बाहर भी परन्तु फिर भी हर वस्तु से स्वतन्त्र रहता है उसी प्रकार परमात्मा की आत्मीय शक्ति सब जगह स्थित है फिर भी सबसे स्वतन्त्र है|
यहाँ यह ध्यान रहे की ईश्वर की आत्मीय शक्ति को दूसरे शब्दों में ब्रम्ह कहा जाता है(Ch14:Sh4). इस प्रकार यह निष्कर्ष निकलता है कि ब्रम्ह जो ईश्वर की शक्ति है एक क्षेत्र की भांति पुरे ब्रम्हांड में व्याप्त है और जीवन का आधार है| यह ब्रम्ह सभी जीवो मी स्थित होते हुए भी सर्वथा स्वतन्त्र है