संधि विच्छेद
यथा आकाश स्थितः नित्यं वायुः सर्वत्र गः महान् ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत स्थानि इति उपधारय ॥
अनुवाद
जैसे आकाश में सर्वत्र विचरण करता हुआ प्रचंड वायु नित्य(सदा) आकाश में ही स्थित रहता है वैसे ही सभी प्राणी(या आत्माएं) मुझमे स्थित रहते हैं॥
व्याख्या
यह श्लोक इसके पहले से दो श्लोकों के साथ ही परमात्मा और जीवात्मा के विषय पर एक अति महत्वपूर्ण श्लोक है| इसके पहले के दो श्लोकों में भगवान ने परमात्मा के की अव्यक्त शक्ति के द्वारा भौतिक जगत की उत्पत्ति और परमात्मा के साथ जीवात्मा के सम्बन्ध का वर्णन किया| ईश्वर की आत्मीय शक्ति सभी जीव आत्माओं में व्याप्त है लेकिन फिर भी परमात्मा पूर्णतः स्वतन्त्र है| यहाँ पर अपने आप एक प्रश्न उठता है परमात्मा सभी जीवों में व्याप्त होते हुए भी स्वतन्त्र कैसे हैं| इस श्लोक में उसी प्रश्न का स्पस्ट उत्तर है|