अध्याय9 श्लोक6 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 06

यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥

संधि विच्छेद

यथा आकाश स्थितः नित्यं वायुः सर्वत्र गः महान्‌ ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत स्थानि इति उपधारय ॥

अनुवाद

जैसे आकाश में सर्वत्र विचरण करता हुआ प्रचंड वायु नित्य(सदा) आकाश में ही स्थित रहता है वैसे ही सभी प्राणी(या आत्माएं) मुझमे स्थित रहते हैं॥

व्याख्या

यह श्लोक इसके पहले से दो श्लोकों के साथ ही परमात्मा और जीवात्मा के विषय पर एक अति महत्वपूर्ण श्लोक है| इसके पहले के दो श्लोकों में भगवान ने परमात्मा के की अव्यक्त शक्ति के द्वारा भौतिक जगत की उत्पत्ति और परमात्मा के साथ जीवात्मा के सम्बन्ध का वर्णन किया| ईश्वर की आत्मीय शक्ति सभी जीव आत्माओं में व्याप्त है लेकिन फिर भी परमात्मा पूर्णतः स्वतन्त्र है| यहाँ पर अपने आप एक प्रश्न उठता है परमात्मा सभी जीवों में व्याप्त होते हुए भी स्वतन्त्र कैसे हैं| इस श्लोक में उसी प्रश्न का स्पस्ट उत्तर है|

भगवान श्री कृष्ण ने आकाश और वायु का उदहारण देकर इस तथ्य को स्पस्ट किया है| परमात्मा एक आकाश की तरह है और सभी जीव आत्माएं वायु के समान| हमे यह ज्ञात हो को आकाश इस ब्रम्हांड के हर एक बिंदु में स्थित है, आकाश अंदर भी होता है बाहर भी होता है| सभी इस ब्रम्हांड के सभी पदार्थ आकाश में स्थित होते हैं, लेकिन यही आकाश हर एक कण में स्थित होता है| वास्तव में परमाणु के अंदर का अधिकतर भाग आकाश ही होता है| लेकिन इसके बाद भी आकाश स्वतन्त्र होता है यह किसी भी तत्व पर न निर्भर है और न ही बंधा हुआ है|

ठीक इसी प्रकार परमात्मा की आत्मीय शक्ति हर एक जीव में, हर एक कण में व्याप्त है| लेकिन फिर सभी जीव इसी परमात्मा में ही स्थित है|
हमे यह ध्यान हो कि परमात्मा की इस आत्मीय शक्ति को ही ब्रम्ह कहा जाता है| यह ब्रम्ह वेदों का मूल विषय है|