अध्याय9 श्लोक9 - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 9 : राज विद्या राज गुह्य योग

अ 09 : श 09

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवदासीनमसक्तं तेषु कर्मसु ॥

संधि विच्छेद

न च मां तानि कर्माणि निबध्नन्ति धनञ्जय।
उदासीनवत् असीनम् असक्तं तेषु कर्मसु ॥

अनुवाद

हे धनञ्जय(अर्जुन)! ये कर्म मुझे नहीं बांधते क्योंकि मै इन कर्मो से [सर्वथा] विरक्त और निरासक्त(निरपेक्ष) रहता हूँ|

व्याख्या

यह श्लोक श्रीमद भगवद गीता के कई महत्वपूर्ण श्लोकों में से एक है और सनातन धर्मं के एक बड़े सिद्धांत में से एक “निष्काम कर्म” को प्रतिपादित करता है|

इसके पहले के श्लोकों में भगवान ने यह स्पस्ट किया कि उनकी ही शक्ति से यह पूरी सृष्टि और सभी सत्ता में आते हैं और वह इस सम्पूर्ण सृष्टि का पालन करते हैं| लेकिन सृष्टि में इतने कर्म करते हुए भी कर्म उन्हें बाँध नहीं पाते|

यहाँ पर अपने आप एक प्रश्न खड़ा होता है कि कैसे कोई कर्ता कर्म करे और फिर भी कर्म से बंधे नहीं| कर्म के दो अवयव होते हैं कर्ता और कर्म | कर्ता के द्वारा कर्म किया जाता है उस कर्म के कोई न कोई फल होते हैं| इस प्रकार कर्ता को स्वतः ही कर्म के साथ बंधन हो जाता है| फिर यह कैसे होता है कि कोई कर्म करे और फिर भी कर्म के बंधन से मुक्त रहे|

ऊपर के श्लोक में भगवान श्री कृष्ण ने उस प्रश्न का उत्तर दिया है| श्री कृष्ण ने यह स्पस्ट किया कि वह सभी कर्म करते हैं परन्तु किसी भी कर्म के साथ वे आसक्त नहीं होते, कर्म के फल की कोई लालसा नहीं रखते| कर्म करते हुए वह पूर्ण रूप से निरपेक्ष रहते हैं| इस प्रकार कर्म के बंधन से मुक्त रहते हैं|

यह निष्काम कर्म ही है जो कर्म योग का मूल है| कर्म तों प्रत्येक प्राणी करते हैं लेकिन सभी मुक्त नहीं होते | वह मनुष्य जो निष्काम कर्म करता है वह कर्मो के बंधन से मुक्त होकर जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है|
इस प्रकार ऊपर के श्लोक के अनुसार जब मनुष्य निरासक्त भाव अर्थात कर्म के फल से कोई स्वार्थ नहीं होता बल्कि वह कर्म दूसरों के कल्याण या अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए कर्म करता है तों इस प्रकार के कर्म को निष्काम कर्म कहा जाता है| निष्काम कर्म ही कर्म योग है और मुक्ति का साधन