विश्व रूप दर्शन - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 11: विश्व रूप दर्शन

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अ 11 : श 01-02

अर्जुन उवाच
मदनुग्रहाय परमं गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञितम्‌ ।
यत्त्वयोक्तं वचस्तेन मोहोऽयं विगतो मम ॥1॥
भवाप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशो मया ।
त्वतः कमलपत्राक्ष महात्म्यमपि चाव्ययम्‌ ॥2॥

संधि विच्छेद

अर्जुन उवाच
मत् अनुग्रहाय परमं गुह्यम् आध्यात्म सञ्ज्ञितम्‌ ।
यत् त्वया उक्तं वचः तेन मोहः अयं विगतः मम ॥
भव आप्ययौ हि भूतानां श्रुतौ विस्तरशः मया ।
त्वतः कमलपत्राक्ष महात्म्यम् अपि चाव्ययम्‌ ॥

अनुवाद

अर्जुन ने कहा- मुझ पर अनुग्रह करते हुए आध्यात्म के ये गुढ़ रहस्य अपने मुझे बताये जिससे मेरे सारे मोह(सारे अज्ञान) नष्ट हो गए| (1)
हे कमलनयन! आपके श्रीमुख से मैंने आपकी अनंत शक्ति के द्वारा जीवों की उत्पत्ति और उनके विनाश की प्रक्रिया का वर्णन सुना |(2) 

व्याख्या

पिछले अध्याय में श्री कृष्ण ने अर्जुन के सम्मुख अपने कुछ प्रमुख विभूतियों का वर्णन किया और यह भी कि सम्पूर्ण श्रृष्टि स्वयं श्री कृष्ण की शक्ति से उत्पन्न, चलायमान और फिर विलिप्त होती है| अर्जुन ने इन दो श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण का आभार प्रकट किया और यह भी स्पस्ट किया कि उसके(अर्जुन के) सारे मोह, सभी शंकाएँ नष्ट हो गई हैं|