भक्ति योग - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 12: भक्ति योग

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अ 12 : श 01

अर्जुन उवाच
एवं सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते ।
ये चाप्यक्षरमव्यक्तं तेषां के योगवित्तमाः ॥

संधि विच्छेद

एवं सतत युक्तः ये भक्ताः त्वां पर्युपासते ।
ये च अपि अक्षरम् अव्यक्तं तेषां के योग-वित्तमाः ॥

अनुवाद

इन दो प्रकार के भक्तो में कौन श्रेष्ठ है? वे भक्त जो सदा आपके स्वरूप को आधार मानकर(युक्त होकर) आपकी उपासना(साधना) करते हैं या वे भक्त जो अव्यक्त(निराकार) और अक्षर की उपासना करते हैं|

अथवा

इन दो प्रकार के भक्तो में कौन श्रेष्ठ है? वे भक्त जो साकार ईश्वर की साधना करते हैं या वे भक्त जो अव्यक्त(निराकार) और अक्षर ईश्वर की उपासना करते हैं|

व्याख्या

कौन सी साधना श्रेष्ठ है, साकार साधना या निराकार साधना|

 साकार साधना का अर्थ होता है जब भक्त ईश्वर कि किसी मूर्ति, किसी चित्र या ईश्वर से जुडी किसी चिन्ह को आधार मानकर विभिन्न अनुष्ठानो, मन्त्रों या दूसरी विधिओं से ईश्वर की साधना करता है| ईश्वर के गुणों का चित्रण, अवतार की लीलाओं का पठन या श्रवण भी इसी श्रेणी में आते हैं| इसी साकार साधना को कुछ दूसरे धर्मो के लोग मूर्ति पूजा के नाम से जानते हैं| हालाकि मूर्ति पूजा जैसे शब्द सनातन धर्म की ग्रंथों में वर्णित नहीं| इस्लाम और ईसाई धर्मावलंबियों ने इस शब्द का प्रयोग शुरू किया | वर्तमान में यह शब्द प्रचलित हो गया है|

निराकार साधना वह है जिसमे एक निराकार और अक्षर अर्थात समझ के परे किसी शक्ति की साधना की जाती है| निराकार साधना में किसी मूर्ति, चित्र या चिन्ह का प्रयोग नहीं किया जाता लेकिन मंत्र या लिखे हुए प्रार्थना को पढकर साधना की जाती है| निराकार साधना में किसी मूर्तरूप ईश्वर भी नहीं होता, ईश्वर की परिभाषा मात्र होती है जैसे अनंत, सर्वशक्तिमान, सर्व व्याप्त आदि आदि| कुछ लोग कई अनुष्ठान भी करते हैं लेकिन मूर्ति, चित्र या चिन्ह नहीं बनाते|

यह प्रश्न वर्तमान समय में के बहुत बड़े बहस का विषय रहा है| गैर हिंदू धर्मो या पंथों द्वारा हिंदू धर्म के ऊपर इस साधना को लेकर प्रहार किये जाते रहते हैं|
लेकिन अर्जुन ने इस अध्याय के प्रथम ही श्लोक में यह प्रश्न पूछा इससे यह साबित होता है कि उस समय भी यह प्रश्न महत्वपूर्ण था, तभी अर्जुन ने विशेष रूप से यह प्रश्न पूछा|

अगर हम इस श्लोक को गौर करें तों प्रश्न का सारांश यही कि दो साधना पद्धतियों में कौन श्रेष्ठ है या दो प्रकार के भक्तों में कौन श्रेष्ठ है १. वह जो साकार ईश्वर की साधना करता है या २ वह जो निराकार ईश्वर की साधना करता है|
श्लोक में जो साकार के लिए शब्द का प्रयोग है
“सततयुक्ता ये भक्तास्त्वां पर्युपासते”
अर्थात आपसे युक्त होकर आपकी उपासना करता है|

श्री कृष्ण चूँकि साकार हैं जो मानव शरीर के रूप में अवतरित है, अतः श्री कृष्ण से युक्त होने का अर्थ ही है किसी आकार के साथ जुडना| अब चूँकि श्री कृष्ण एक मानव शरीर में हैं तों स्पस्ट है कोई एक आकार नहीं होगा| उनके अवतरण के समय से वयस्क होने तक के सभी शारीरिक आकार भक्तों के लिए उपलब्ध हैं| जब कोई भक्त श्री कृष्ण के आकार से जुडेगा और साधना करेगा, तों चूँकि श्री कृष्ण उसके सामने हमेशा उपस्थित नहीं तों वह मूर्ति ही बनाएगा | मूर्ति में भक्त श्री कृष्ण की लीलाओं को प्रदर्शित कर सकता है| उनकी लीलाओं की कहानियों को पढ़ सकता है, उनकी लीलाओं पर भजन लिख सकता है| साधना की यह सभी चीज़ें साकार साधना के अंग हैं|

प्रश्न के दूसरे भाग में फिर अर्जुन ने दूसरे प्रकार के भक्त का वर्णन किया| वह भक्त जो ईश्वर को एक निराकार और अक्षर इकाई मानकर साधना करता है|

अर्जुन अ प्रश्न यह है कि इन दोनों साधना या दो प्रकार के भक्तो में कौन श्रेष्ठ है|