ज्ञान योग - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 4: ज्ञान योग

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अ 04 : श 01-02

श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्‌ ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्‌ ॥
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥

संधि विच्छेद

श्री भगवानुवाच
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवान् अहम् अव्ययम्‌ ।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुः इक्ष्वाकवे अब्रवीत्‌ ॥
एवं परम्परा प्राप्तम् इमं राजर्षयः विदुः ।
सः कालेन इह महता योगः नष्टः परन्तप ॥

अनुवाद
श्री भगवान बोले- मैंने इस अविनाशी योग को सबसे पहले सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र [राजा] इक्ष्वाकु से कहा॥1॥ इस प्रकार यह योग राजश्रियों द्वारा एक पीढ़ी से दूसरी में स्थानांतरित होता रहा| लेकिन हे परन्तप! बीच में यह महान योग बहुत समय के लिए लुप्त हो गया |
व्याख्या

इन दो श्लोकों में भगवान श्री कृष्ण ने योग की उत्पत्ति और उसके विस्तार का रहस्य बताया है| यह दो शलोक योग की उत्पत्ति के सबसे महत्वपूर्ण प्रमाण हैं| भगवान ने स्पस्ट रूप से बताया कि स्वयं उन्होंने योग के इस रहस्य को सबसे पहले आदि देव सूर्य को बताया था| सूर्य ने यह विद्या अपने पुत्र मनु को बताया|मनु ने अपने पुत्र एवं भगवान राम के पूर्वज राजा इश्वाकू को बताया| कालांतर में यह विद्या महान राजाओं द्वारा आश्रित ऋषिओं द्वारा एक से दूसरी पीढ़ी में स्थानांतरित होती रही| लेकिन फिर बीच में जब धर्म का शासन मंद पड़ गया तो योग की यह विद्या कुछ समय के लिए पृथ्वी से लुप्त रही|

इसी योग को भगवान श्री कृष्ण ने श्रीमद भगवद गीता में फिर से प्रकट किया |