राज या ध्यान योग - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 6: राज या ध्यान योग

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अ 06 : श 01

श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥

संधि विच्छेद

श्री भगवान उवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निःअग्नि न च अक्रियः ॥

अनुवाद
श्री भगवान बोले: जो [मनुष्य] बिना फल की कामना का स्वार्थ किये अपना नियत कर्म(कर्तव्य पालन) करता है, [वास्तव में] वह सन्यासी है, वह योगी है| [सन्यासी] वह नहीं जिसने अग्नि संस्कारों और कर्मो का त्याग किया है|
व्याख्या

इस श्लोक में भगवान ने दो महत्वपूर्ण तथ्यों का प्रतिपादन किया है| पहले तथ्य के रूप में श्री कृष्ण ने सन्यास की सही परिभाषा तय की है और दूसरा यह कि सन्यास और योग एकदम अलग नहीं बल्कि समान मार्ग से होकर जाते हैं|
अपने समाज, परिवार, धार्मिक अनुष्ठानो और कर्तव्यों का त्याग सन्यास नहीं है| बल्कि ऐसा करना सन्यास के विरुध है| सच्चा सन्यास कर्म फलों का त्याग है| जो मनुष्य कर्म फल के स्वार्थ किये बिना ईश्वर में सच्ची श्रधा करके अपने कर्तव्य करता है, वह योग का पालन करने के कारण योगी तो है ही लेकिन फलों का त्याग करने के कारण सन्यासी भी है| इस प्रकार नियम पूर्वक कर्म योग का पालन सन्यास को भी सिद्ध करता है| अतः सन्यास और योग एकदम भिन्न नहीं बल्कि एक ही मार्ग से होकर जाते हैं