श्रीभगवानुवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥
श्री भगवान उवाच
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स सन्न्यासी च योगी च न निःअग्नि न च अक्रियः ॥
इस श्लोक में भगवान ने दो महत्वपूर्ण तथ्यों का प्रतिपादन किया है| पहले तथ्य के रूप में श्री कृष्ण ने सन्यास की सही परिभाषा तय की है और दूसरा यह कि सन्यास और योग एकदम अलग नहीं बल्कि समान मार्ग से होकर जाते हैं|
अपने समाज, परिवार, धार्मिक अनुष्ठानो और कर्तव्यों का त्याग सन्यास नहीं है| बल्कि ऐसा करना सन्यास के विरुध है| सच्चा सन्यास कर्म फलों का त्याग है| जो मनुष्य कर्म फल के स्वार्थ किये बिना ईश्वर में सच्ची श्रधा करके अपने कर्तव्य करता है, वह योग का पालन करने के कारण योगी तो है ही लेकिन फलों का त्याग करने के कारण सन्यासी भी है| इस प्रकार नियम पूर्वक कर्म योग का पालन सन्यास को भी सिद्ध करता है| अतः सन्यास और योग एकदम भिन्न नहीं बल्कि एक ही मार्ग से होकर जाते हैं