01
श्री भगवान बोले: जो [मनुष्य] बिना फल की कामना का स्वार्थ किये अपना नियत कर्म(कर्तव्य पालन) करता है, [वास्तव में] वह सन्यासी है, वह योगी है| [सन्यासी] वह नहीं जिसने अग्नि संस्कारों और कर्मो का त्याग किया है|
02
जिसे सन्यास कहा जाता है, हे पांडव(अर्जुन)! तुम उसे योग जानो | क्योंकि बिना इन्द्रिय स्वार्थ(भौतिक संकल्पों) का त्याग किये कोई योगी हो सकता |
03
योग में सिद्धि प्राप्ति की इक्षा रखने वाले मुनि के लिए प्रारंभ में कर्म का साधन बताया गया है| योग में सिद्धि प्राप्ति (योग आरूढ़ होने) के बाद सन्यास का साधन बताया गया है|
04
जब कोई [मनुष्य] न इन्द्रिय सुखों और न ही सांसारिक कार्यों में सुसज्जित होता है (अर्थात आनंदित होता है) तब वह निश्चय ही पूर्ण सन्यासी और योगारूढ़(योग में सिद्ध) कहा जाता है|
05-06
[मनुष्य को] अपने मन को जीतकर अपना उद्धार करना चाहिए न कि इसके अधीन होकर पतन को प्राप्त होना चाहिए| मन मनुष्य का मित्र भी है और शत्रु भी | जिसने अपने मन को जीत लिया, मन उसका सबसे अच्छा मित्र है लेकिन जिसने अपने मन को नहीं जीता तो वही मन उसका सबसे बड़ा शत्रु हो जाता है|
07
जिसने अपने मन को जीत लिया है और जो शीत, उष्ण, सुख, दुःख तथा मान-अपमान में प्रशांत(शांतचित) बना रहता है, उसके मन में परमात्मा समाहित होते हैं(अर्थात उसका मन परमात्मा में लीन हो जाता है)
08
जो ज्ञान (अध्यात्मिक सत्य) और विज्ञान (वैज्ञानिक तथ्य) में सिद्ध (तृप्त) है, जिसकी इन्द्रियां उसके वश में हैं और जो [ईश्वर अटूट विश्वास रखते हुए] अपने अंतःकरण में स्थित है, वह योगी ब्रम्हलीन(भगवत्प्राप्त) है| उसके लिए मिट्टी, पत्थर और सोना सब एक समान हैं|
09
जो सुहृद (हितैषी), मित्र, वैरी (शत्रु), उदासीन(पक्षपातरहित), मध्यस्थ, द्वेष करने वाला, सम्बन्धी (बंधु-बांधव) तथा साधु(महात्मा) और पापी के बीच भी समान भाव रखता है(अर्थात भेदभाव नहीं करता), वह [योगियों में भी] विशिष्ट है|
10
योग में सिद्धि के लिए योगी, शांत स्थान पर स्थित होकर सभी मोह और भौतिक चिंताओं का त्याग करके और पर अपने मन को अंतःकरण में केंद्रित करके सतत (लगातार) अभ्यास करे|
11-12
शुद्ध स्थान, जो भूमि से न बहुत ऊँचा हो नः बहुत नीचा, पर कुश घास या मृग छाल के ऊपर कोमल वस्त्र बिछाकर बने स्थिर आसन पर बैठकर, मन को एकाग्र कर, इन्द्रियों को वश में रखते हुए योगी अपनी आत्मा की शुद्धि के लिए योग का अभ्यास करे|
13-14
काया(शरीर), सिर और गले को एक सीध में स्थित करके, अचल (बिना हिले-डुले) और स्थिर होकर अपनी दृष्टि को नासिका के अग्र भाग पर केंद्रित करते हुए, ब्रम्हचर्य व्रत में दृढ, भयरहित होकर, योगी शांत मन से मेरा चिंतन करते हुए और मुझमे आश्रित होकर(समर्पित होकर) ध्यान का अभ्यास करे|
15
इस प्रकार अपने मन को नियमित करके (वश में करके) और अपनी आत्मा को निरंतर मुझमे स्थापित करके योग का अभ्यास करता हुआ योगी [इस जीवन में] शांति प्राप्त करता है और [शरीर त्यागने के बाद] मेरे धाम में आकर मोक्ष की परम अवस्था को (परम निर्वाण) प्राप्त करता है|
16-17
हे अर्जुन! योग उनके द्वारा सिद्ध नहीं होता है, जो ज्यादा खाते हैं या बहुत कम खाते हैं, जो ज्यादा सोते हैं या कम सोते हैं| सभी दुःखों को अंत करने वाला योग उनको सिद्ध होता है जो खान पान, सोने जागने में संतुलन रखते हैं और अपने कर्मो पर नियंत्रण रखते हैं|
18
जब संयमित मन से योग का अभ्यास करता हुए [योगी के] सभी मोह और वासनाएं नष्ट हो जाती हैं और वह अपनी आत्मा में लीन हो जाता है, तब उसे योग में सिद्ध [योगी] कहा जाता है|
19
जिस प्रकार वायुरहित स्थान में दीपक का लौ स्थिर रहता है उसी प्रकार परमात्मा के ध्यान में लगे योगी का चित्त [शांत एवं] स्थिर रहता है | ॥19॥
23-24
मानसिक धारणा से उत्पन्न वासनाओं का पूर्ण त्याग करके और मन द्वारा सभी इन्द्रियों को सब प्रकार से (भली भांति) वश में करके इस [अष्टांग] योग का अभ्यास धैर्य और दृढ निश्चय के साथ करना चाहिए|
25
दृढ संकल्प से बुद्धि को स्थिर करके, क्रमबद्ध तरीके से अभ्यास करते हुए साधक [योग] सिद्धि (योग की परम अवस्था अर्थात समाधि) को प्राप्त करे| वह अपने मन को अपनी आत्मा पर केंद्रित करते हुए किसी और [सांसारिक] वस्तु का चिंतन न करे|
26
जब जब यह चंचल मन अस्थिर होकर [सांसारिक विचारों या इक्षाओं में] भटके, तब तब साधक [को चाहिए कि] उसे(मन को) अनुशासन पूर्वक अपने वश में करके [परमात्मा पर] स्थिर करे|
27
मेरी भक्ति में लीन (ब्रम्हभूत या ब्रम्ह में स्थित) योगी का मन स्थिर जो जाता है,रजोगुण से उत्पन्न उसकी भावनाएं(इक्षाएं) शांत हो जाती है और वह सभी पापों से मुक्त हो जाता है| यह योगी [योग में सिद्धि प्राप्त कर] परम सुख को प्राप्त करता है|
28
इस प्रकार पाप से रहित योगी अपनी आत्मा में केंद्रित होकर [अष्टांग] योग का अभ्यास करता हुआ आसानी से ब्रम्ह के साथ एकीकार होता है और परम आनंद प्राप्त करता है|
29
योग में सिद्ध [योगी] सभी जीवों को अपनी आत्मा में और अपनी आत्मा को सभी जीवों में बिम्बित(कल्पित) देखता है |इस प्रकार वह सभी जीवों को समान देखता(मानता) है | या योग में सिद्ध योगी मुझमे सभी जीवों को स्थित और सभी जीवों में मुझे(मुझ परमात्मा को) स्थित देखता है|इस प्रकार वह मुझे सर्वत्र देखता है|
30
जो [मनुष्य] मुझे सर्वत्र देखता है(अर्थात सभी जीवो में मै व्याप्त हूँ ऐसा जानता है) और सबकुछ मेरे अंदर ही देखता है(पूरी सृष्टि मुझमे स्थित है ऐसा जानता है), मैं उससे दूर नहीं होता और वह मुझसे दूर नहीं होता|
31
सभी प्राणियों में मैं [ईश्वर] ही स्थित हूँ इस सत्य को जानकर जो [भक्त] एकाकी भाव से मेरी साधना करता है, वह सब प्रकार से जीवन यापन करते हुए भी मुझमे ही स्थित रहता है|
32
जो सभी में एकाकी भाव रखकर(सभी जीवों में एक ईश्वर की सत्ता जानकर) सुख और दुःख को सभी जीवों में समान रूप से देखता है वह योगी [मनुष्यों में]श्रेष्ठ है| अथवा जो योगी दूसरों के सुख और दुःख को अपने ही सुख और दुःख के समान समझता है वह [मनुष्यों में] श्रेष्ठ है|
33-34
अर्जुन ने कहा हे मधुसूदन! जिस समन्वित योग का आपने वर्णन किया, चंचल मन में उसको स्थिर कर पाना मुझे संभव नहीं लगता | क्योंकि हे कृष्ण! मन बड़ा चंचल, उन्मादी, बलवान और हठी है| इसे वश में करना उतना ही दुष्कर है जितना वायु को वश में करना|
35
श्री भगवान बाले हे महाबाहो(अर्जुन)! निःसंदेह मन बहुत चंचल है और कठिनाई से वश में आता है, परन्तु हे कुन्ती पुत्र ! बारम्बार अभ्यास और वैराग्य से इसे बश में किया जा सकता है|
36
जिसका मन नियंत्रण में नहीं है उसके लिए योग में सिद्धि कठिन है, लेकिन जिसने उपयुक्त उपाय करके मन को वश में कर लिया उसके लिए योग में सिद्धि निश्चित है - ऐसा मेरा मत है|
37
अर्जुन ने पूछा हे कृष्ण! [कोई ऐसा मनुष्य] जो योग में श्रधा तों रखता है, परन्तु [किसी कारणवश] मन पर संयम नहीं होने से योग में सफल नहीं हो पाता| ऐसे असफल साधक की क्या गति होती है?
38-39
हे महाबाहो(कृष्ण)! क्या ईश्वर(ब्रम्ह) के मार्ग से भटका और ईश्वर के आश्रय से विमुख हुआ [वैसा] योगी छिन्न-भिन्न बादल के समान नष्ट नहीं हो जाता? हे कृष्ण ! मेरे इस भ्रम को पूर्ण रूप से दूर करने में आप ही सक्षम है क्योंकि आपसे उत्तम इस भ्रम का निवारण करने वाला कोई अन्य नहीं है|
40
श्री भगवान बोले हे पार्थ! [ईश्वर के मार्ग में आये हुए] वैसे मनुष्य का न तों इस जन्म में और न ही अगले जन्मो में कभी पतन होता है क्योंकि हे पुत्र(तात) [भगवद भक्ति रूपी] कल्याण का कार्य करने वाला मनुष्य कभी दुर्गति को प्राप्त नहीं हो सकता|
41-42
अपने पुण्य कर्मो से प्राप्त भोगों को कई वर्षों तक भोगने के बाद [योग या आध्यात्म में] असफल योगी [अगले जन्म में] श्रेष्ठ और पवित्र परिवार(घर) में जन्म लेते हैं| या वह [असफल योगी] [अगले जन्म में] सिद्ध योगी(सिद्ध महात्मा) के कुल में जन्म लेता है| लेकिन इस प्रकार का जन्म प्राप्त करना बहुत दुर्लभ है|
43
हे कुरु नंंदन! वहाँ(अगले जन्म में) वह पूर्णजन्म के संस्कारों को पुनः प्राप्त करता है और उन (पूर्व जन्म के) संस्कारों से युक्त वह (परमात्मा की प्राप्ति) में पूर्ण सफलता के लिए [पहले से बढ़कर] प्रयत्न करता है|
44-45
अपने पूर्व जन्म के प्रताप से वह [पूर्व जन्म में असफल योगी] [अगले जन्म में] बिना प्रयास ही(स्वतः ही) अध्यात्म की ओर अग्रसर होता है| ईश्वर प्राप्ति(योग) के लिए प्रेरित वह जिज्ञासु [जन्म से ही] भौतिक अनुष्ठानो से उच्चतर [अध्यात्मिक स्तर पर] स्थित होता है | इस प्रकार [ईश्वर प्राप्ति के लिए] यत्न पूर्वक अभ्यासरह [सच्चा] योगी, अपने सभी कर्मो को शुद्ध करता हुआ कई जन्मो के पश्चात योग में सिद्ध होकर परम गति (अर्थात मोक्ष) को प्राप्त होता है|
46
योगी तपस्वी से उत्तम होता है, ज्ञानी से उत्तम होता है और कर्मकांडी से भी उत्तम होता है| इसलिए हे अर्जुन [तुम] ज्ञानी बनो |
47
समस्त योगियों और अन्य सभी में भी जिसने अपनी अंतरात्मा को मुझमे पूर्ण रूप से स्थित कर लिया है(अर्थात जो मेरे प्रति पूर्ण समर्पित है) और जो श्रधा भाव से मेरी [निरंतर] साधना करता है वह सबसे उत्तम है |