अध्यात्म योग - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 7: अध्यात्म योग

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अ 07 : श 01-02

श्रीभगवानुवाच
मय्यासक्तमनाः पार्थ योगं युञ्जन्मदाश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तच्छृणु ॥
ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः ।
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोऽन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते ॥

संधि विच्छेद

मयि आसक्त मनाः पार्थ योगं युञ्जन् मत् आश्रयः ।
असंशयं समग्रं मां यथा ज्ञास्यसि तत् श्रृणु ॥
ज्ञानं ते अहं सविज्ञानम् इदं वक्ष्यामि अशेषतः ।
यत् ज्ञात्वा न इह भूयः अन्यत् ज्ञातव्यम् अवशिष्यते ॥

अनुवाद
श्री भगवान बोले हे पार्थ ! [मेरे वचनों को ध्यान से] सुनो, कि किस प्रकार अपने चित्त को [भक्ति पूर्वक] मुझमे केंद्रित करके और मुझपर आश्रित होकर( मुझमेपूर्ण समर्पित होकर) योग की साधना करते हुए तुम मुझे पूर्ण रूप से (कि मैं कौन और क्या हूँ) जान सकते हो| मैं तुम्हारे लिए [अध्यात्मिक] ज्ञान और विज्ञान[भौतिक ज्ञान] [के रहस्य] का वर्णन करता हूँ, जिसके जानने के बाद कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता|
व्याख्या

पिछले अध्याय में भगवान ने योग की साधना के रहस्यों और योग साधना की विधियों का व् वर्णन किया| उसके अंतिम श्लोकों में भगवान ने यह स्पस्ट किया कि एक योगी एक तपस्वी, कर्मकांडी औद ज्ञानी से उत्तम होता है और उनमे भी जो पूर्ण रूप से ईश्वर से भक्ति और प्रेम करता है वह सभी से उत्तम होता है| लेकिन ईश्वर की भक्ति के लिए ईश्वर का ज्ञान होना आवश्यक है|

इस अध्याय में आगे के श्लोकों में श्री कृष्ण ने अपने ईश्वरीय प्रकृति और उससे जुड़े रहस्यों का वर्णन किया है | इसलिए वह अर्जुन को निर्देश देते हैं कि वह ध्यान पूर्वक बातों को सुने |
ईश्वर की प्रकृति को जानना और उसे ग्रहण करना सबसे उच्च स्तर का ज्ञान है, इसलिए भगवान ने यह भी स्पस्ट किया कि इनको जानने के बाद अध्यात्म में कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता|