हम क्या हैं क्या नहीं हैं? - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

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हम क्या हैं क्या नहीं हैं?

“ओम् नमो भगवते वासुदेवायः”
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जीवन और अध्यात्म के अध्ययन में सबसे महत्वपूर्ण प्रश्नों में से एक है कि आखिर हम हैं क्या? जहाँ तक सामाजिक पहचान की बात करें तो इसमे कोई संशय नहीं कि हम एक दूसरे को शारीरिक आकृति से ही पहचानते हैं| स्थान और माता पिता का नाम जोड़कर जानना भी आखिर भौतिक आकृति से ही जुडा है| यह अपने में सही है, इसमे किसी कोई कोई एतराज नहीं हो सकता|

लेकिन जब हम अध्यात्मिक स्तर पर आते है और यही प्रश्न पूछते हैं कि आखिर हम कौन हैं और उससे भी बड़ी बात कि हम क्या है? यह दोनों प्रश्न ही महत्वपूर्ण हैं और हम सबको यह जानने का प्रयास अवश्य करना चाहिए| हम बारी बारी से इन दोनों विषयों को जानने का प्रयास करेंगे | इस लेख में दूसरे विषय पर चर्चा करेंगे?

हम क्या हैं इसको जानने के भी दो तरीके हैं, पहला तो यह कि हम सीधा सीधा यह जाने कि हम क्या हैं? दूसरा तरीका यह कि हम उस परिभाषा को नकारें जो हमारी पहचान तो लगती है पर है नहीं?

हम क्या नहीं है?

चूँकि हम एक दूसरे को और सभी जीवों को उनके शरीर की आकृति से जानते हैं तो इसी बात पर विषय को केंद्रित करना उचित है| क्या हम वास्तव में शरीर हैं? अगर शरीर ही हैं तो शरीर में क्या हैं? क्या हम हाथ हैं, पांव हैं, पेट, पीठ या फिर मस्तिस्क हैं? हड्डी हैं या मांस हैं? यह सारे प्रश्न अपने आप ही उठते हैं|
अगर हम शरीर ही हैं तो शरीर तो मृत्यु के बाद भी रहता ही है, फिर भी मनुष्य मृत कहलाता है | अर्थात यह तो स्पस्ट है कि शरीर का होना मात्र जीवन नहीं है| कोई ऐसी इकाई है जो शरीर में जीवन की परिभाषा को चरितार्थ करता है|

शरीर जीवन नहीं है यह हमारे हर शास्त्रों में किसी न किसी रूप में लिखा हुआ है
Ch13:Sh2
इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रमित्यभिधीयते।

भावार्थ : श्री भगवान बोले- हे अर्जुन! यह शरीर को 'क्षेत्र' कहा जाता है|

क्षेत्र को साधारण बोलचाल की भाषा में खेत कहा जाता है, जैसे पृथ्वी के एक भाग को घेर लेते हैं तो वह खेत(क्षेत्र) कहलाता है उसी प्रकार यह शरीर इस प्रकृति के एक छोटा सा हिस्सा है| मात्र है, शरीर स्वयं जीव नहीं है और न ही जीवन है| यह शरीर आत्मा का निवश स्थान है, शरीर में आत्मा के होने से जीवन होता है

Ch2:Sh17
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌ ।

जान लो कि यह आत्मा जो पुरे शरीर में विद्यमान है, अविनाशी है|

Ch2:Sh18

अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।

इस नित्य(अमर) आत्मा(शरीरी) के सिर्फ शरीर का अंत होता है|

इसी तथ्य को पूर्ण स्पस्ट रूप से दूसरे शास्त्रों में भी वर्णन है, महान ऋषि अष्टावक्र ने राजा जनक को निम्न रूप से जीवन और शरीर का भेद बताया

अष्टावक्र गीता 1.3
न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान्।
एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये॥१-३॥

तुम न पृथ्वी, न जल, न अग्नि और न ही आकाश हो |अपने आप को मुक्त करने के लिए(मोक्ष प्राप्ति के लिए) इन सभी के द्रष्टा (अर्थात) आत्मा जो जानो|

अष्टावक्र गीता1.5
न त्वं विप्रादिको वर्ण: नाश्रमी नाक्षगोचर:।
असङगोऽसि निराकारो विश्वसाक्षी सुखी भव॥१-५॥

तुम कोई वर्ण नहीं और नहीं अनुष्ठान कर्ता हो| तुम तो निराकार, निर्लिप्त(अंगों से मुक्त) और संसार का द्रष्टा (अर्थात) आत्मा हो|

जैसा हम जानते हैं कि यह शरीर पञ्च तत्वों पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश से बना है| हम न तो पृथ्वी, न जल, न वायु, न् अग्नि और न ही आकाश है, अर्थात हम शरीर नहीं है| हम तो निरकार, निर्लिप्त और इस संसार के द्रष्टा आत्मा हैं, शरीर नहीं|

हिंदू धर्म के महान प्रवर्तक आदि शंकराचार्य ने अपने निर्वाण अष्टकम में इस तथ्य को दूसरे शब्दों में बल्कि और भी स्पस्ट तुप से कहा है

निर्वाण अष्टकं#1
मनो बुद्ध्यहंकारचित्तानि नाहम् न च श्रोत्र जिह्वे न च घ्राण नेत्रे
न च व्योम भूमिर् न तेजॊ न वायु: चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

न मै मन, न अहंकार, न चित्त हूँ | न मैं कर्ण, न जिव्हा, न नाक और न ही नेत्र हूँ | न मै आकाश, न पृथ्वी, न अग्नि और न वायु हूँ| मैं तो आनंद स्वरूप आत्मा हूँ, मैं शिव हूँ|

निर्वाण अष्टकं #2
न च प्राण संज्ञो न वै पञ्चवायु: न वा सप्तधातुर् न वा पञ्चकोश:
न वाक्पाणिपादौ न चोपस्थपायू चिदानन्द रूप: शिवोऽहम् शिवॊऽहम् ॥

न मैं उर्जा(प्राण), न पंचवायु हूँ, न मै सप्त धातु हूँ, और न मैं पञ्च कोष हूँ| न मै पांच कर्म इन्द्रियां वाणी,हाथ, पांव, जनिन्द्रिय या गुदा हूँ| मैं तो आनंद स्वरूप आत्मा हूँ, मैं शिव हूँ |

हम किसी भी रूप से शरीर नहीं हैं, शरीर इस प्रकृति का एक भाग है, प्रकृति से आरम्भ होता है और अंततः प्रकृति में ही मिल जाता है| हो सकता है सामाजिक रूप से हम एक दूसरे को शरीर से पहचानते हैं जो एक भौतिक आवश्यकता है लेकिन हमे इस बात का हमेशा ज्ञान रहना चाहिए कि हम शरीर नहीं है| शरीर के कार्यकलाप जैसे भूख लगना, सोना, जागना इत्यादि भी प्राकृतिक नियमों के अधीन हैं हमारे अधीन नहीं| इसलिए हम इसे शरीर से सम्बंधित किसी भी चीज़ का अभिमान मन में नहीं रखना चाहिए|

Ch3:Sh27
प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ॥

वास्तव में सम्पूर्ण कार्य हर प्रकार से प्रकृति के नियम और गुणों के परिवर्तन से होते हैं फिर भी अज्ञानता और अहंकार से युक्त मनुष्य “मैं कर्ता हूँ” ऐसा मानता है |

एक ही जीव का अलग जन्म में अलग शरीर

शरीर से एक जीव की पहचान एक दूसरे तर्क से भी संभव नहीं | एक शरीर का होना एक अल्प काल के लिए ही संभव होता है| एक ही आत्मा अलग अलग जन्म में अलग अलग शरीर में निवास करता है| मृत्यु के समय आत्मा पुराने शरीर को त्यागकर नए शरीर को धारण करता है:

Ch2:Sh22
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥

जैसे मनुष्य जीर्ण (फटे पुराने) वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा जीर्ण या पुराने शरीरों को त्यागकर नए शरीरों को धारण करता है॥

आध्यात्म की पहली ही सीढ़ी है स्वयं को जानना | हम यह शरीर नहीं हैं बल्कि आत्मा है और इस शरीर में अल्प काल के लिए हैं | यह शरीर कर्म का एक साधन है और इसलिए हमे शरीर का सदुपयोग करना चाहिए और आगे आने वाले जीवन को सफल बनाने के प्रयास करना चाहिए |

“श्री हरि ओम् तत् सत्”