पुरुष और प्रकृति - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

अध्याय 13: पुरुष और प्रकृति

हटायें

  • श्लोक
  • संधि विच्छेद
  • व्याख्या

हटायें

छिपायें

अ 13 : श 01

अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञमेव च |
एतद्वेदितुमिच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ||१||

संधि विच्छेद

अर्जुन उवाच
प्रकृतिं पुरुषं च एव क्षेत्रं क्षेत्रज्ञम् एव च |
एतत् वेदितुम् इच्छामि ज्ञानं ज्ञेयं च केशव ||१|

अनुवाद

अर्जुन ने पूछा: 
 हे केशव ! मुझे प्रकृति और पुरुष, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ तथा ज्ञान और ज्ञेय(जानने योग्य) को जानने की इक्षा है।

व्याख्या
अब अर्जुन ने श्री कृष्ण से जीवन की संरचना की बारे मे प्रश्न पूछा। इस श्लोक मे अर्जुन ने जीवन की सर्नरचना से संबन्धित एक साथ कई शब्दों का उल्लेख किया और जानने की इक्षा प्रकट की।
अर्जुन द्वारा उल्लेख किए गए शब्द इस प्रकार हैं।

1 प्रकृति
2 पुरुष
3 क्षेत्र
4 क्षेत्रज्ञ
5 ज्ञान
6 ज्ञेय

इसमे से कई शब्दों का प्रयोग तो हम हिन्दी मे भी करते हैं, हालाकि भिन्न अर्थों मे, लेकिन कई ऐसे शब्द हैं जिनका न सिर्फ संस्कृत मे प्रयोग होता है बल्कि अगर प्रयोग हो भी तो समझना आसान नहीं। जिस प्रकार से अर्जुन ने बिना किसी प्रस्तावना के इन शब्दों का प्रयोग किया उससे ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय मे इन शब्दों का प्रयोग लोग करते थे, लेकिन चूंकि अर्जुन ने इन शब्दों की व्याख्या करने का अनुरोध किया इससे यह भी स्पष्ट होता है कि उस काल मे भी इन शब्दों के सही अर्थ लोगों को पता नहीं था।

श्री कृष्ण ने आगे के श्लोकों मे इन शब्दों की व्याख्या की है लेकिन इन शब्दों का छोटा सा अर्थ इस प्रकार है

1 प्रकृति
प्रकृति एक प्रचलित शब्द है संस्कृत और हिन्दी मे भी। इसका अर्थ इस श्लोक मे भी वही है जो हम बोलचाल की भाषा मे समझते हैं। अर्थात प्रकृति का अर्थ होता है भौतिक जगत। प्रकृति से ब्रह्मांड की हर भौतिक चीज़ जो दिखती है या नहीं दिखती का बोथ होता है। इसमे तारों, ग्रहों, आकाश गंगा से लेकर मिट्टी, पत्थर, बादल, वर्षा आदि सब आते हैं।

2 पुरुष
यह एक बहुत विस्तृत शब्द है जिसका संस्कृत ही नहीं हिन्दी मे भी होता है। हिन्दी मे पुरुष शब्द का प्रयोग मनुष्य और खासकर पुरुष(मर्द) के लिए किया जाता है। इसके अलावा पुरुष शब्द का प्रयोग हिन्दी और संस्कृत व्याकरण मे होता है जहां "पुरुष" का अर्थ होता है person।
हिन्दी और संस्कृत मे भी अङ्ग्रेज़ी की ही तरह तीन पुरुष होते हैं
जैसे
उत्तम पुरुष -
माध्यम पुरुष -
अन्य या प्रथम पुरुष -

लेकिन सनातन अध्यात्म में पुरुष शब्द प्रयोग एकदम भिन्न प्रकार से होता है लेकिन यहाँ भी एक नहीं बल्कि कई अर्थों में पुरुष शब्द का प्रयोग होता है.
कम से कम चार अर्थों में इसका प्रयोग होने का स्पस्ट रूप से बताया जा सकता है. .
१. आत्मा
२. परमात्मा
३. जीव
४. मनुष्य

"पुरुष" शब्द है अर्थ पहले तीन अर्थों के लिए होता है का उल्लेख अध्याय १५ में इस प्रकार हुआ है.

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।
क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥

वेदों में दो प्रकार के पुरुष का उल्लेख है - नाशवान (क्षर) और अनश्वर (अक्षर) । सभी जीव नाशवान(क्षर) हैं। जो अनश्वर है उसे अव्यय(जो परिवर्तित न हो) भी कहाँ जाता है।
--Ch15.Sh16

इस श्लोक मे पुरुष शब्द का प्रयोग जीव और आत्मा के लिए हुआ है। जिसे क्षर और अक्षर से इंगित किया गया है। इसी श्लोक मे यह भी स्पष्ट है कि क्षर जीव के लिए प्रयुक्त हुआ है। दूसरे शब्द "अक्षर" की व्याख्या नहीं है लेकिन अध्याय 2 मे यह स्पष्ट रूप से वर्णन है कि जीव मे सिर्फ और सिर्फ आत्मा ही है जो अविनाशी और अव्यय है। अव्यय का अर्थ होता है जो व्यय न हो, जो परिवर्तित न हो और हमेशा एक समान रहे । आत्मा अविनाशी और अव्यय दोनों है।

पुरुष शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए भी होता है। यह अध्याय 15 के अगले ही श्लोक मे वर्णित है।
उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः ।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥
इन दो से भिन्न से एक पुरुष वह है जो सर्वोच्च है, उसे वेदों मे परमात्मा कहा जाता है। वह तीनों लोकों मे व्याप्त है और तीनों लोकों को धारण करता है, वह अविनाशी ईश्वर है।
--Ch15.Sh17

"पुरुष" शब्द का प्रयोग वेदों मे परमात्मा के अर्थ मे मुख्यता से हुआ है। ऋग वेद 10.90 सूक्त ईश्वर के गुणो का वर्णन करता है और उसमे ईश्वर के लिए "पुरुष" शब्द का प्रयोग है, इसलिए इस पूरे सूक्त को "पुरुष सूक्त" भी कहा जाता है।
पुरुष सूक्त का पहला मंत्र इस प्रकार है:

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् ।
स भूमिं विश्वतो वृत्वात्यतिष्ठद्दशाङुलम् ॥१॥

सहस्त्र सिरों वाला, सहस्त्र नेत्रों वाला, सहस्त्र पगों वाला है वह पुरुष (परमात्मा) । वह इस भूमि की सभी दिशाओं मे व्याप्त है और पूरा विश्व उसकी दश अंगुलियों के मात्र है बस।
--ऋग वेदा 10.90.1

पुरुष शब्द का प्रयोग इन तीन अर्थों के अलावा मनुष्य के लिए भी होता है। अध्याय 2 का यह श्लोक इसका उदाहरण है

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥

हे श्रेष्ठ पुरुष(अर्जुन)! जो मनुष्य इनसे [अल्कालिक सुख दुःख के अनुभव से] व्यथित(विचलित) नहीं होते और सुख दुःख में समान बने रहते हैं वे अमृत रूपी मोक्ष के भागी होते हैं|
--CH2:SH 15

इस श्लोक मे "पुरुष" शब्द का प्रयोग "मनुष्य" के लिए हुआ है।

इस प्रकार हम यह स्पष्ट रूप से कह सकते हैं कि "पुरुष" शब्द का प्रयोग कम से कम चार अर्थों मे होता है। किस श्लोक मे "पुरुष" का क्या अर्थ हो सकता है वह उस श्लोक के विषय को जानकार ही बताया जा सकता है।

3 क्षेत्र
साधारण अर्थों मे हिन्दी मे क्षेत्र का अर्थ होगा है "भूमि का एक छोटा से हिस्सा"। लेकिन अध्यात्म मे और "क्षेत्र" का अर्थ होता है "शरीर"। वास्तव मे "शरीर" इस प्रकृति का एक छोटा सा हिस्सा ही है जैसे भूमि का एक छोटा से हिस्सा होता है।

4 क्षेत्रज्ञ

क्षेत्रज्ञ= क्षेत्र + ज्ञ
ज्ञ का अर्थ होता है ज्ञान होना, जानना
अतः जो इस शरीर को जानता है वह उसे क्षेत्रज्ञ कहते हैं।

5 ज्ञान
ज्ञान एक स्पष्ट शब्द है, जो आज भी सामान्य बोलचाल की भाषा मे उसी अर्थ के साथ प्रयुक्त होता है। किसी विषय को जानना ज्ञान कहलाता है। लेकिन अध्यात्म मे ज्ञान का अर्थ थोड़ा विस्तृत होता है, जो आत्मा, ईश्वर और आध्यात्मिक गूढ रहस्यों को जानने के अर्थ मे होता है।

6 ज्ञेय
ज्ञेय कर अर्थ होता है वह जो जानने के योग्य हो।
जाना तो बहुत कुछ जा सकता है, लेकिन क्या सबकुछ जानने के योग्य है। अथयात्म के संदर्भ मे वह ज्ञान जो जीव को मुक्त कर दे जानने के योग्य और "ज्ञेय" है। वह ज्ञान जो जीव को ईश्वर से विमुक्त कर दे "ज्ञेय" नहीं।