हम कौन हैं? - श्रीमद भगवद गीता

श्रीमद भगवद गीता

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हम कौन हैं?

“ओम् नमो भगवते वासुदेवायः”

इस विषय के ऊपर यह दूसरा लेख है| पहले लेख में हमने यह विवेचन किया कि हम क्या हैं? निःसंदेह हम शरीर नहीं बल्कि आत्मा हैं|
लेकिन यह एक सामान्य पहचान है| इस जगत में करोड़ों जीव हैं और इसलिए करोड़ों आत्माएं हैं| इसलिए यह अपने आप ही निश्चित होता है कि हर एक आत्मा की एक अपनी पहचान होती है| वह पहचान ही यह तय करती है कि हम कौन[आत्मा] हैं| यह तो एक प्रश्न है लेकिन इसी से सम्बंधित कई दूसरे प्रश्न हैं आत्मा के सम्बन्ध में जैसे आत्मा स्वयं क्या है,आत्मा का श्रोत क्या है इसका लक्ष्य क्या है, इसकी अपनी पहचान क्या है आदि आदि?
इस विवेचन में इन प्रश्नों के उत्तर खोजने का प्रयास करेंगे|

आत्मा क्या है?

वैसे तो आत्मा अपने आप में एक बहुत बड़ा विषय है इतना कि सनातन धर्म के कई शास्त्रों में आत्मा के स्वरूप और गुणों का ही वर्णन है| लेकिन सारांश में इसका उत्तर यह है कि आत्मा जीवन की इकाई है| किसी शरीर में आत्मा का स्थित होना और न होना उस जीव का उस शरीर में जीवन को तय करता है| यह जीवन की इकाई आत्मा स्वयं श्रृष्टि के नौ मूल तत्वों में से एक है, जो भगवान श्री कृष्ण से उत्पन्न हुए हैं| प्रथम आठ तत्व निम्न तत्व हैं और भौतिक व्यवस्था के आधार हैं यह नौवां तत्व आत्मा जीवन का आधार है|

Ch7:Sh4-5
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कापर इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्‌ ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्‌ ॥

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार, ये आठ प्रकार के तत्व जिससे यह सृष्टि बनी है मेरी ही मेरी ही प्रकृति से उद्धृत हैं।
ये आठ मेरी निन्म प्रकृति हैं| हे महाबाहो, इनके अलावा मेरी शक्ति का उतम रूप है आत्मा, जिससे पूरी सृष्टि में जीवन स्थित है॥

पूरी सृष्टि ऊपर के ९ मूल तत्वों से निर्मित है, आत्मा जीवन का मूल तत्व है| शरीर अपने आप में जीवन नहीं बल्कि प्रकृति का एक भाग मात्र है| शरीर में आत्मा का होना या न होना जीवन के होने और न होने की परिभाषा है| यह एक साधारण तथ्य है आत्मा के बारे में | (आत्मा की अपनी मूल प्रकृति अपने आप में एक विस्तृत विषय है जिसकी चर्चा हम आगे के पोस्ट में करेंगे)

आत्मा का श्रोत क्या है?
ऊपर के श्लोक में आत्मा क्या है के अलावा यह भी स्पस्ट है कि आत्मा का श्रोत अंततः भगवान श्री कृष्ण स्वयं है| लेकिन यह एक सामान्य जानकारी है|
अगर हम आत्मा के सबसे मूल प्रकृति का अध्ययन करें तो हम पाते हैं कि आत्मा वह इकाई है जो न कभी जन्म लेता है और नहीं इसकी मृत्यु होती है| यह न घटता है न बढता है बल्कि हमेशा शाश्वत बना रहता है| यह तथ्य इस श्लोक में स्पस्ट है

Ch2:Sh20
न जायते म्रियते वा कदाचि-न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो-न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥

यह [आत्मा] न कभी जन्म लेता है और न ही मरता है | न ही यह उत्पन्न होकर नष्ट होने वाला है | यह [आत्मा] अजन्मा, नित्य, शाश्वत(सदैव एक समान रहने वाला) और पुरातन(सृष्टि के प्रारंभ से) है | शरीर के अंत होने पर इस [आत्मा] का अंत नहीं होता |

अगर आत्मा न जन्म लेता है और न ही मरता है बल्कि हमेशा स्थित होंता है (नित्य है) इससे यह स्पस्ट है कि इसका न कोई आरंभ है न कोई अंत | ऐसी स्थिति में आत्मा के श्रोत का क्या अभिप्राय है ? लेकिन उससे भी बड़ी बात यह है कि आखिर आत्मा अनंत होने का गुण कैसे धारण करता है और फिर यह अपनी व्यक्तिगत पहचान कैसे कायम रखता है?

जैसा हम जानते हैं कि भगवान श्री कृष्ण की दो मुख्य शक्तियां हैं १. ब्रम्ह २ माया | माया वह शक्ति है जो भौतिक जगत को उत्पन्न करती है| माया को कई प्रकार से वर्णित किया जाता है, यह एक भ्रम है, यह एक मिथ्या है आदि| वह इसलिए कि माया निर्मित कोई वस्तु कभी एक समान नहीं रहती, हमेशा परिवर्तित होती रहती है इसलिए एक ही वस्तु अलग अलग समय पर अलग अलग प्रतीत होती है| चूँकि आत्मा हमेशा नियत, शास्वत और अनंत होती है जो माया के गुणों के एकदम विपरीत है इसलिए माया तो आत्मा का श्रोत कभी भी नहीं हो सकता| माया के अतिरिक्त एक ही विकल्प है, वह है ब्रम्ह
यह ब्रम्ह वह शक्ति है जो पुरे ब्रम्हांड में आकाश की भांति स्थित है | यह ब्रम्ह जो विभिन्न शास्त्रों में ईश्वर के अभिप्राय के रूप में वर्णित है अनंत, शास्वत और नियत है | यह वही सभी गुण है जो आत्मा में ही है|

इस प्रकार यह स्वतः ही सिद्ध होता है कि आत्मा इस ब्रम्ह का ही अंग है |
यह तो रही तर्क की बात, लेकिन यह तथ्य स्पस्ट रूप से श्रीमद भगवत गीता में वर्णित है, कृप्या इस श्लोक को पढ़ें:

Ch8:Sh3
श्रीभगवानुवाच
अक्षरं ब्रह्म परमं स्वभावोऽध्यात्ममुच्यते ।

श्री भगवान बोले:
[जीवन की] यह अक्षर (क्षय नहीं होने वाला) और अनंत इकाई ब्रम्ह है, इसका आतंरिक स्वभाव (या गुण) आत्मा है|

आत्मा ब्रम्ह का आतंरिक गुण है या ऐसे कहें कि आत्मा का श्रोत है|

आत्मा की व्यक्तिगत पहचान
आत्मा अनंत, नियत और शास्वत है और यह ब्रम्ह से उत्पन्न हुआ है| अगला प्रश्न है कि फिर आत्मा अपनी व्यक्तिगत पहचाने कैसे कायम रखता है, क्योंकि करोडो जीव हैं तो उतनी ही आत्माएं भी होंगी|

यह सत्य है | प्रत्येक आत्मा हर समय ब्रम्ह का भाग बना रहता है फिर भी अपनी अलग अलग पहचान रखता है | यह पहचान हर एक आत्मा को स्वयं ईश्वर की इक्षा से होती है

Ch14:Sh3
मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भं दधाम्यहम्‌ ।
सम्भवः सर्वभूतानां ततो भवति भारत ॥
हे अर्जुन! ब्रम्ह मेरी मूल प्रकृति है | इस ब्रम्ह रूपी गर्भ में मैं अपनी आज्ञा रूपी बीज प्रदान करता हूँ | इस प्रकार ब्रम्ह और मेरी आज्ञा रूपी बीज से सभी जीव(और जीव आत्माएं) उत्पन्न होते हैं|

यह श्लोक ईश्वर, ब्रम्ह और आत्मा के सम्बन्ध को स्थापित करता है| अगर हम शब्दावली को ध्यान से समझें तो यह स्पस्ट होता है कि ईश्वर ने हर एक आत्मा को ब्रम्ह में अपनी आज्ञा से स्थापित किया जो आत्मा की अपनी पहचान हैं|

आत्मा की अपनी यह पहचान हमेशा रहती है, यहाँ तक कि आत्मा के शरीर से दूसरे शरीर के बीच भ्रमण करते समय भी यह पहचान कायम रहती है

Ch2:Sh 28
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥

हे अर्जुन! आरम्भ में(जन्म से पहले) सभी जीव अव्यक्त(अप्रकट) थे, बीच में अल्प काल के लिए व्यक्त रूप (शारीरिक रूप) में हैं| मृत्यु के बाद सभी पुनः अव्यक्त (अप्रकट) हो जाने वाले हैं | इस परिवर्तन के दौरान आत्मा सत्ता स्थित समान रहती है| फिर शोक क्या करना?


ब्रम्ह और आत्मा
एक बात जो हम बार बार हिंदू शास्त्रों में पढते हैं और ज्ञानियों से सुनते हैं कि ईश्वर हर एक जीव में स्थित है | श्रीमद भगवद गीता में भी कई स्थानों पर यह स्पस्ट रूप से वर्णित है|

Ch 10. 20.
अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
हे अर्जुन! मैं सभी जीवों के हृदय में स्थित आत्मा हूँ |

यह पूर्ण स्पस्ट है, लेकिन कैसे? हम इसे समझें कैसे? किस प्रकार ईश्वर सभी जीवों के ह्रदय में स्थित है?

इस प्रश्न का उत्तर ईश्वर, ब्रम्ह और आत्मा के इस मूल स्वरूप को समझकर ही प्राप्त हो सकता है| अगर हम ऊपर के विश्लेषण के आधार पर निम्न निष्कर्ष निकलकर आते हैं:

ब्रम्ह ईश्वर की अनंत शक्ति है जो पुरे ब्रम्हांड में व्याप्त है | जैसे आकाश सब जगह होता है वैसे ही ब्रम्ह ब्रम्हांड के हर एक बिंदु पर स्थित है| इस ब्रम्ह पर आत्मा अपनी पहचान के साथ उसी प्रकार स्थित है जैसे समुद्र के जल के ऊपर जल की लहरे होती है| जैसे जल की लहर जल के ऊपर हमेशा स्थित होकर अपनी अलग पहचान रखती हैं| अंतर सिर्फ इतना है कि जल की लहर का आरंभ और अंत होता है आत्मा का नहीं|

आत्मा हमेशा ब्रम्ह की सतह पर ही स्थित होता है, चूँकि ब्रम्ह भगवान की अपनी शक्ति है और ईश्वर के साथ एकीकार है इस प्रकार ईश्वर ब्रम्ह के द्वारा हर जीन में स्थित है यह सिद्ध होता है| इस प्रकार सभी जीव हर प्रकार से ईश्वर की सत्ता से जुड़े हैं, इस तथ्य को कई रूपों में वर्णित किया गया है

Ch9:Sh 6
यथाकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्‌ ।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय ॥

जैसे सर्वत्र विचरण करता हुआ प्रचंड वायु अंततः आकाश में ही स्थित होता है वैसे ही समस्त [चराचर] जीव [विभिन्न शरीरों में विचरण करते हुए][हमेशा] मुझमे ही स्थित रहते हैं॥

Ch7:Sh6,7,8
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥
यह सम्पूर्ण जगत मुझमे उसी प्रकार गुथा हुआ है जैसे सूत्र(धागे) में मणियों गुंथी होती हैं॥

हम हर पल उस ईश्वर की सत्ता में ही स्थित होते हैं, ईश्वर आकाश है तो हम उसमे स्थित वायु, ईश्वर सूत्र है तो हम उसमे गुंथे हुए मणि |

इस मॉडल के आधार पर हम आत्मा और जीवन की कई दूसरी क्रियाओं का भी वर्णन कर सकते है| जैसे आत्मा का ब्रम्हांड में एक स्थान पर तीव्र गति से गमन, एक शरीर से दूसरे शरीर में गमन आदि|
इस लेख में सारांश में मैंने आत्मा का जीव के रूप में पहचान और उसका ब्रम्ह और ईश्वर से सम्बन्ध को वर्णित करने का प्रयास किया| लेकिन चूँकि यह विषय अति गुढ़ और विस्तृत है, इसलिए यह दावा नहीं कर सकता कि हर एक पहलू की व्याख्या हो पाई हो| लेकिन यह लेख विषय को समझने में सहायक हो तो उसी को सफलता मानूंगा |

“श्री हरि ओम् तत् सत्”