कभी ऐसा नहीं हुआ कि जब तुम नहीं थे, या कि मैं नहीं था या ये लोग नहीं थे, और भविष्य में भी ऐसा नहीं होगा (कि जब तुम नहीं होंगे या मैं नहीं हूँगा या ये लोग नहीं होंगे ) |
अ 02 : श 12
इन्द्रियों का प्रकृति से विभिन्न मात्राओं में संपर्क सर्दी गर्मी, सुख और दुःख का अनुभव देते हैं। यह आते-जाते रहते हैं और अनित्य होते हैं।
अ 02 : श 14
असत्य की कोइ सत्ता नही होती और सत्य का कभी अभाव नही होता।
अ 02 : श 16
जान लो कि यह आत्मा जो पुरे शरीर में विद्यमान है,अविनाशी है। इसका नाश कोई नहीं कर सकता।
अ 02 : श 17
सिर्फ नाशवान शरीर का ही अन्त होता है, नित्य, अविनाशी और अपरिमेय आत्मा का नही।
अ 02 : श 18
यह आत्मा न कभी जन्म लेता है और न ही मरता है। न ही यह उत्पन्न होकर नष्ट होने वाला है। यह अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन(सृष्टि के प्रारंभ से) है। शरीर के अंत होने पर इस आत्मा का अंत नहीं होता।
अ 02 : श 20
जैसे मनुष्य जीर्ण (फटे पुराने) वस्त्रों को त्यागकर नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा जीर्ण या पुराने शरीरों को त्यागकर नए शरीरों को धारण करता है।
अ 02 : श 22
इसे (इस आत्मा को) शस्त्र काट नहीं सकते, इसको आग जला नहीं सकता, जल इसे गला नहीं सकता और वायु इसे सुखा नहीं सकता ।
अ 02 : श 23
यह आत्मा अच्छेद्य है, अदाह्य है, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है। यह नित्य,सर्वगामी, नियत और सनातन है।
अ 02 : श 24
जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित हैं और जिसकी मृत्यु हुई है उसका पुनः जन्म भी निश्चित है। और जो अवश्यम्भावी है उसके लिए शोक नहीं करना चाहिए।
अ 02 : श 27
आरम्भ में(जन्म से पहले) सभी जीव अव्यक्त(अप्रकट) थे, बीच में अल्प काल के लिए व्यक्त रूप (शारीरिक रूप) में हैं| मृत्यु के बाद सभी पुनः अव्यक्त (अप्रकट) हो जाने वाले हैं। इसके लिए शोक क्या करना?
अ 02 : श 28
कोई इस आत्मा को आश्चर्य की भांति देखता है, वहीँ कोई दूसरा इसे आश्चर्य से व्यक्त करता है । और कोई अन्य इसे आश्चर्य से सुनता है लेकिन बार बार सुनकर भी आत्मा को समझ नहीं पाता।
अ 02 : श 29
कर्म पर तुम्हारा नियंत्रण (अधिकार) है, फल पर कभी नहीं । कभी कर्मफल के कर्ता (हेतु) का भाव न हो और न ही कर्म न करने (कर्म या कर्तव्य त्यागने) की चेष्टा हो।
अ 02 : श 47
योग की रीति से कर्म करो, सभी आसक्तियों कों त्यागकर एवं सिद्धि (लाभ) एवं असिद्धि (हानि) में समान रहते हुए। इस प्रकार का समत्व भाव ही योग कहा जाता है।
अ 02 : श 48
जो [मनुष्य] अपने अंगों को [भौतिक कामनाओं से] वैसे ही समेट लेता है जैसे एक कछुआ अपने अंगों को समेट कर अपनी कवच में स्थित हो जाता है, वह स्थितप्रज्ञ है।
अ 02 : श 58
अपनी अन्तःकरण में स्थित मनुष्य के सभी [तीन प्रकार के सांसारिक] दुखो का अंत हो जाता है । ऐसे [अध्यात्मिक] आनंद से युक्त उस [मनुष्य] की बुद्धि शीघ्र ही [परमात्मा में] स्थिर हो जाती है।
अ 02 : श 65
जैसे वायु जल में चलने वाली नाव को भ्रमित कर देता है उसी प्रकार इन्द्रियों में लिप्त मस्तिस्क मनुष्य की बुद्धि को भ्रमित कर देता है ।
अ 02 : श 67
जैसे अनेक नदियों के जल सब ओर से परिपूर्ण, अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में उसको विचलित न करते हुए ही समा जाते हैं, वैसे ही सभी कामनाएं स्थितप्रज्ञ पुरुष में किसी प्रकार का विकार उत्पन्न किए बिना ही समा जाते हैं।
अ 02 : श 70
सभी भौतिक कामनाओं को त्यागकर जो मनुष्य इक्षा रहित,मोह रहित और अहंकार रहित जीवन व्यतीत करता है वह निश्चय ही [पूर्ण] शांति को प्राप्त करता है।
अ 02 : श 71
वास्तव में सारे कार्य प्रकृति के नियमो और गुणों के परिवर्तन के द्वारा सम्पन्न होते हैं, लेकिन अहंकार और अज्ञानतावश मनुष्य 'मैं कर्ता हूँ', ऐसा मानता है। ज्ञानी मनुष्य गुणों और कर्म के इस रहस्य को जानते हैं इसलिए इन सांसारिक परिवर्तनों मे आसक्त नही होते।
अ 03 : श 27-28
जब-जब धर्म का नाश और अधर्म की वृद्धि होती है, तब-तब मैं अवतार लेता हूँ।
अ 04 : श 07
हे अर्जुन! मैं सम्पूर्ण चराचर की उत्पत्ति का बीज हूँ। (मैं) बुद्धिमानों की बुद्धि और तेजस्वियों का तेज हूँ॥
अ 07 : श 10
निश्चय ही ज्ञान अनुष्ठानों से श्रेष्ठ है, ज्ञान से से श्रेष्ठ है [ईश्वर मे] ध्यान। लेकिन ध्यान से भी श्रेष्ठ है फलों का त्याग करके [जीवों के कल्याण के लिए ]कर्म करना।
अ 12 : श 12